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________________ की ओर मोड़ने का यत्न] भगवान् श्री अरिष्टनेमि ३७१ राजमार्ग के दोनों ओर वातायन, अट्टालिकाएं, गृहद्वार प्रादि द्वारिका की रमणियों के समूहों से खचाखच भरे थे। त्रिभुवन-मोहक दूल्हे नेमिकुमार को देखकर पाबाल वद्ध-नरनारी-वन्द अपनी दृष्टि को सफल और जीवन को धन्य मानते हुए दूल्हे की भूरि-भूरि सराहना करने लगे। ___ इस तरह पौरजनों के नयनों और मनों को प्रानन्द-विभोर करते हुए नेमिनाथ की बरात उग्रसेन के भवन के पास आ पहुंची। बरात के प्रागमन के तुमुलनाद को सुनते ही राजीमती मेघ-गर्जन रव से मस्त हुई मयूरी की तरह परम प्रमुदित हो खड़ी हुई । सखियों ने वर को देखते ही दौड़कर राजीमती को घेर लिया और उसके भाग्य की सराहना करती हुई कहने लगीं-राजदुलारी! तुम परम भाग्यवती हो जो नेमिनाथ जैसा त्रैलोक्य-तिलक वर तुम्हारा पाणिग्रहण करेगा। नयनाभिराम वर पाखिर तो यहाँ हमारे सामने पायेंगे ही पर हम अपनी वर-दर्शन की प्रबल उत्कण्ठा को रोक नहीं सकतीं, अतः सलोनी सखि ! लज्जा का परित्याग कर शीघ्रता से चलो। हम सब प्रति कमनीय वर को गवाक्षों से देखलें।" मनोभिलषिता बात सुनकर सघन घन-घटा में चमचमाती हुई चंचल चपला सी राजीमती एक झरोखे की ओर बढ़ी और वहाँ से उसने रोम-रोम में झनझनाहट सी पैदा कर देने वाले साक्षात् कामदेव के समान ठाठ-बाट से पाते हुए नेमिकुमार को देखा । राजीमती निनिमेष नयनों से अपने प्रियतम की रूपसुधा का पान करती हुई विचारने लगी-"अहोभाग्य ! मन से भी अचिन्त्य ऐसा त्रैलोक्य-मुकुटमरिण नर-रत्न यदि मुझे मेरे प्राणनाथ के रूप में प्राप्त हो जाय तो मेरा जन्म सफल हो जाय । यद्यपि ये स्वतः मुझे अपनी जीवन-संगिनी बनाने की इच्छा लिये यहां पा रहे हैं फिर भी मेरे मन को धैर्य नहीं होता कि मैं अपने किन सुकृतों के फलस्वरूप इन्हें अपने प्राणनाथ के रूप में प्राप्त कर सकूगी।" इस प्रकार मन ही मन ऊहापोह में डूबी हुई राजकुरी राजीमती की सहसा दाहिनी आँख और भुजा फड़कने लगी । अनिष्ट की आशंका से उसका हृदय धड़कने लगा और विकसित कमल के फूलों के समान सुन्दर नेत्रों से अश्रुधाराएं बहाते हुए उसने अवरुद्ध कण्ठ से अपनी सखियों को अनिष्ट-सूचक अंगस्फुरण की बात कही। सखियों ने उसे ढाढस बंधाते हुए कहा-"राजदुलारी ! इस मंगलमय बेला में तुम अमंगल की आशंका क्यों कर रही हो ? हमारी कुलदेवियाँ प्रसन्न हो तुम जैसी पुण्यशालिनी का सब तरह से कल्याण ही करेंगी । कुमारी ! धैर्य रखो। अब तो कुछ ही क्षणों की देर है, बस अब तो तुम्हारे पारिण-ग्रहण के लिए वर पा चुका है।" Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002071
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year1999
Total Pages954
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, Tirthankar, N000, & N999
File Size16 MB
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