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________________ कुमार के साथ वसन्तोत्सब] भगवान् श्री अरिष्टनेमि के कटाक्षों और हंसने-हंसाने, रूठने-मनाने आदि विविध मनोरम हावभावों से एवं नर-नारी के संगजन्य मानन्द को ही जीवन का सार प्रकट करने वाले अनुपम अभिनयों से कुमार के मन में मनसिज को जगाने एवं नारी के रमणीय कलेवर की मोर उत्कट भाकर्षण व स्पृहा पैदा करने में ऐसी जुट गई मानों स्वयं पुष्पायुध ही सदलबल नेमिनाथ पर विजय पाने चढ़ भाया हो। पर इन सब हावभावों और कमनीय कटाक्षों का नेमिनाथ के मन पर कोई असर नहीं हुमा । प्रलयकाल के प्रचण्ड पवन के झोंकों में जैसे सुमेरु प्रचलअडोल खड़ा रहता है उसी तरह उनका मन भी इस रंग भरे वातावरण में निर्विकार-निर्मल बना रहा। अपनी असफलता से उत्तेजित हो उन रमणी-रत्नों ने अपने किन्नर-कण्ठों से वन-कठोर हृदय को भी गुदगुदा देने वाले मधुर प्रणय-गीत गाने भारम्भ किये । पर जिन्होंने इस सार तत्त्व को जान लिया है कि-"सव्वं विलवियं गीयं, सव्वं नटें विडम्बियं”–उन प्रभु नेमिनाथ पर इस सब का क्या असर होने वाला था। जब कृष्ण जल-क्रीड़ा कर सरोवर से बाहर निकले तो कृष्ण की सभी रानियां सरोवर तट के माजानु पानी में जल-कोड़ा करने लगी और नेमिकुमार ने भी राजहंस की तरह सरोवर में प्रवेश किया। पर घुटनों तक के तटवर्ती पानी में स्नान करने लगे । रुक्मिणी ने रत्न-जटित चौकी विधा उस पर नेमिकुमार को बिठाया और अपनी चुनरी से वह उनके शरीर को मलने लगीं । शेष सभी रानियों उनके चारों ओर एकत्रित हो गई। रानियों द्वारा नेमिनार को भोगना की मोर मोड़ने का पल सत्यभामा बड़े ही मीठे शब्दों में कहने लगीं-"प्रिय देवर ! पाप सदा हमारी सब बातें शान्ति से सुन लिया करते हो इसलिए मैं पाप से यह प्रचना चाहती हैं कि पापके बड़े भैया तो सोलह हजार रानियों के पति हैं, उनके छोटे भाई होकर माप कम से कम एक कन्या के साथ भी विवाह नहीं करते, यह कैसी अद्भुत् पटपटी बात है ? सौन्दर्य और लावण्य की दृष्टि से तीनों लोको में कोई भी प्रापकी तुलना नहीं कर सकता । युवावस्था में भी पदार्पण कमी के कर चुके हो फिर समझ में नहीं पाता कि मापकी यह क्या स्थिति है? पापकमातापिता, भाई और हम सब भापकी भाभियाँ, सब के सब मापसे प्रार्थना करते है, एक बार तो सब का कहना मान कर विवाह कर ही लो।" "भाप स्वयं विचार कर देखो-बिना जीवन-संगिनी के कुमारे कितने दिन तक रह सकोगे ? माखिर बोलो तो सही, क्या तुम काम-कला से अनामिक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002071
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year1999
Total Pages954
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, Tirthankar, N000, & N999
File Size16 MB
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