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________________ निर्वाणकाल ] भगवान् महावीर वास्तविकता में इसलिये भी संदेह नहीं करना चाहिए कि जैन ग्रागमों में महावीर निर्वारण के सम्बन्ध में इससे कोई विरोधी उल्लेख नहीं मिल रहा है । यदि जैन आगमों में भगवान् महावीर और बुद्ध के निर्वाण की पूर्वापरता के सम्बन्ध में कोई स्पष्ट उल्लेख होता तो हमें भी इन प्रकरणों की वास्तविकता के सम्बन्ध में सन्देह हो सकता था। फिर बौद्ध शास्त्रों में भी इन तीन प्रकरणों के अतिरिक्त कोई ऐसा प्रकरण होता जो महावीर - निर्वारा से पूर्व वृद्ध-निर्वाण की बात कहता तो भी हमें गम्भीरता से सोचना होता । किन्तु ऐसा कोई बाधक कारण दोनों ओर के साहित्य में नहीं है । ऐसी स्थिति में उन्हें प्रमाण-भूत मानना प्रसंगत प्रतीत नहीं होता । इसमें जो कालावधि का भेद है उसे हम आगे स्पष्ट कर रहे हैं कि भगवान् महावीर के निर्वाण से २२ वर्ष पश्चात् बुद्ध का निर्वाण हुआ । मुनि नगराजजी के अनुसार महावीर की ज्येष्ठता को प्रमाणित करने के लिए और भी अनेक प्रसंग बौद्ध साहित्य में उपलब्ध होते हैं जिनमें बुद्ध स्वयं अपने को तात्कालिक सभी धर्मनायकों में छोटा स्वीकार करते हैं । वे इस प्रकार हैं -- (१) एक बार भगवान् बुद्ध श्रावस्ती में अनाथ पिंडिक के जेत्तवन में विहार कर रहे थे । राजा प्रसेनजित ( कोशल ) भगवान् के पास गया और कुशल पूछकर जिज्ञासा व्यक्त की- “गौतम ! क्या आप भी यह अधिकारपूर्वक कहते हैं कि आपने अनुत्तर सम्यक् संबोधि को प्राप्त कर लिया है ?” ७७१ बुद्ध ने उत्तर दिया- "महाराज ! यदि कोई किसी को सचमुच सम्यक् संबुद्ध कहे तो वह मुझे ही कह सकता है, मैंने ही अनुत्तर सम्यक् संबोधि का साक्षात्कार किया है ।" प्रसेनजित् ने कहा -- गौतम ! दूसरे श्रमरण ब्राह्मण, जो संघ के अधिपति, गणाधिपति, गरणाचार्य, प्रसिद्ध, यशस्वी, तीर्थंकर और बहुजन सम्मत, पूरण काश्यप, मक्खलि गोशाल, निगण्ठ नायपुत्त, सजय वेलट्ठिपुत्त, प्रक्रुद्ध कात्यायन, अजित केशकम्बली आदि से भी ऐसा पूछे जाने पर वे अनुत्तर सम्यक् सम्बोधिप्राप्ति का अधिकारपूर्वक कथन नहीं करते । आप तो अल्पवयस्क व सद्य:प्रव्रजित हैं, फिर यह कैसे कह सकते हैं ? " बुद्ध ने कहा - "क्षत्रिय, सर्प, अग्नि व भिक्षु को अल्पवयस्क समझकर कभी उनका पराभव या अपमान नहीं करना चाहिये ।" (संयुत्तनिकाय, दहर सुत्त पृ० १।१ के आधार से ) उस समय के सब धर्मनायकों में बुद्ध की कनिष्ठता का यह एक प्रबल प्रमाण है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002071
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year1999
Total Pages954
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, Tirthankar, N000, & N999
File Size16 MB
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