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________________ ७७२ जैन धर्म का मौलिक इतिहास [निर्वाणकाल (२) एक बार बुद्ध राजगृह के वेणुवन में विहार कर रहे थे। उस समय एक देव ने आकर सभिय नामक एक परिव्राजक को कुछ प्रश्न सिखाये और कहा कि जो इन प्रश्नों का उत्तर दे, उन्हीं का तू शिष्य होना । सभिय; लण, ब्राह्मण संघनायक, गणनायक, साधुसम्मत पूरण काश्यप, मक्खलि गोशाल, अजितकेश कम्बली, प्रक्रुन्न कात्यायन, संजय वेलठ्ठिपुत्त और निगण्ठ नायपुत्त के पास क्रमशः गया और उनसे प्रश्न पूछे। सभी तीर्थकर उसके प्रश्नों का उत्तर नहीं दे सके और सभिय के प्रति कोप, द्वेष एवं अप्रसन्नता ही व्यक्त करने लगे । सभिय परिव्राजक इस पर बहुत असंतुष्ट हुआ, उसका मन विविध ऊहापोहों से भर गया। उसने निर्णय किया-"इससे तो अच्छा हो कि गृहस्थ होकर सांसारिक आनन्द लूट ?" सभिय के मन में आया कि श्रमण गौतम भी संघी, गणी, बहुजन-सम्मत हैं, क्यों न मैं उनसे भी प्रश्न पूछू। उसका मन तत्काल ही आशंका से भर मया । उसने सोचा "पूरण काश्यप और निगण्ठ नायपुत्त जैसे धीर. वृद्ध, वयस्क उत्तरावस्था को प्राप्त, वयातीत, स्थविर, अनुभवी, चिर प्रवजित' संघी, गणी, गणाचार्य, प्रसिद्ध, यशस्वी, तीर्थंकर, बहुजन-सम्मानित, श्रमण ब्राह्मण भी मेरे प्रश्नों का उत्तर नहीं दे सके, उल्टे अप्रसन्नता व्यक्त कर मुझ से ही इनका उत्तर पूछते हैं; तो श्रमण गौतम मेरे प्रश्नों का क्या उत्तर दे सकेंगे? वे तो आयु में कनिष्ठ और प्रव्रज्या में नवीन हैं। फिर भी श्रमण युवक होते हुए भी महद्धिक और तेजस्वी होते हैं, अतः श्रमण गौतम से भी इन प्रश्नों को पूछू।"२ (सुत्तनिपात महावग्ग सभिय सुत्त के आधार से) यहाँ बुद्ध की अपेक्षा सभी धर्मनायकों को जिण्णा, बुद्धा, महल्लका, प्रद्धगता, वयोअनुपत्ता, थेरा, रत्तंभू, चिरपव्वजिता विशेषण दिये हैं। (३) फिर एक समय भगवान् (बुद्ध) राजगृह में जीवक कौमार भृत्य के आम्रवन में १२५० भिक्षुत्रों के साथ विहार कर रहे थे, उस समय पूर्णमासी के उपोसथ के दिन चातुर्मास को कौमुदी से पूर्ण पूर्णिमा की रात को राजा मागध अजातशत्र वैदेही पुत्र आदि राजामात्यों से घिरा हा प्रासाद के ऊपर बैठा हमा' था । राजा ने जिज्ञासा की-"किसका सत्संग करें, जो हमारे चित्त को प्रसन्न करे ?" राजमंत्री ने कहा-"पूरण काश्यप से धर्मचर्चा करें। वे चिरकाल के साधु व वयोवृद्ध हैं।" १ सुत्त निपात, महावग्ग । २ पल्हे पुढो ब्याकरिस्सति ! समणो हि गौतमो दहरो चेव, जातिया नवो च पध्वजायाति [सुत्त निपात, सभिय सुत्त, पृ० १०६] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002071
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year1999
Total Pages954
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, Tirthankar, N000, & N999
File Size16 MB
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