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जैन धर्म का मौलिक इतिहास ब्राह्मी पौर सुन्दरी आवश्यक चूरिण और मलयगिरि वृत्ति में भी भरत को सुन्दरी और बाहबली को ब्राह्मी देने के उल्लेख के साथ बताया गया है कि ब्राह्मी तो भगवान् को केवलज्ञान होते ही दीक्षित हो गई, पर सुन्दरी को उस समय भरत ने दीक्षा ग्रहण करने की अनुमति प्रदान नहीं की। भरत द्वारा अवरोध उपस्थित किये जाने के कारण वह उस समय दीक्षित नहीं हो सकी। भरत का विचार था कि चक्ररत्न से षट्खण्ड पृथ्वी को जीतकर सुन्दरी को स्त्री-रत्न नियुक्त किया जाय।
प्राचार्य जिनसेन के अनुसार सुन्दरी ने भगवान् ऋषभदेव के प्रथम प्रवचन से ही प्रतिबोध पाकर ब्राह्मी के साथ दीक्षा ग्रहण की थी।'
पर श्वेताम्बर परम्परा के चूणि वृत्ति साहित्य के अनुसार भरत की आज्ञा प्राप्त न होने से, वह उस समय प्रथम श्राविका बनी। उसके अन्तर्मन में वैराग्य की प्रबल भावना थी। तन से गृहस्थाश्रम में रहकर भी उसका हृदय संयम में रम रहा था । भरत के स्नेहातिरेक को देख कर सुन्दरी ने रागनिवारण हेतु उपाय सोचा। उसने भरत द्वारा षट्खण्ड विजय के लिए प्रस्थान कर देने पर निरन्तर प्रायम्बिल (प्राचाम्ल) तप करना प्रारम्भ कर दिया।
साठ हजार वर्ष पश्चात् जब भरत सम्पूर्ण भारतवर्ष पर अपनी विजयवैजयन्ती फहराते हुए षटखण्ड विजय कर विनीता नगरी को लौटे और बारह वर्ष के महाराज्याभिषेक-समारोह के सम्पन्न होने के पश्चात् जब वे अपने परिवार की सार-संभाल करते हुए सुन्दरी के पास आये तो सुन्दरी के सुन्दरसुडौल शरीर को अत्यन्त कृश और शोभाविहीन देखकर बड़े क्षुब्ध हुए । अनुचरों को उपालम्भ देते हुए उन्होंने सुन्दरी के क्षीणकाय होने का कारण पूछा।
अनुचरों ने कहा-"स्वामिन् ! सभी प्रकार के सुख-साधनों का बाहुल्य होते हुए भी इनके क्षीण होने का कारण यह है कि जब से आपने इन्हें संयमग्रहण का निषेध किया, उसी दिन से उन्होंने निरन्तर प्राचाम्ल व्रत प्रारम्भ कर रखा है। हम लोगों द्वारा विविध विधि से पुनः पुनः निवेदन किये जाने के उपरान्त भी इन्होंने अपना व्रत नहीं छोड़ा।"
सुन्दरी की यह स्थिति देखकर भरत ने पूछा- "सुन्दरी ! तुम प्रव्रज्या लेना चाहती हो अथवा गृहस्थ जीवन में रहना चाहती हो?" ___सुन्दरी द्वारा प्रव्रज्या ग्रहण करने की उत्कट अभिलाषा अभिव्यक्त किये जाने पर भरत ने प्रभु की सेवा में रत ब्राह्मी के पास उसे प्रव्रजित करा दिया। इस प्रकार सुन्दरी कालान्तर में साध्वी हो गई।
' (क) महापुराण २४११७७ (ब) त्रिषष्टि० ५० १, स० ३, ग्लो० ६५०-५१
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