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जैन धर्म का मौलिक इतिहास
[रथमूसल संग्राम
महाशिलाकण्टक प्रस्त्र और रथमसल यन्त्र के कारण उस समय दिग्दिगन्त में कूरिणक की धाक जम चुकी थी, अतः ऐसा अनुमान किया जाता है कि भारतवर्ष
और अड़ोस-पड़ोस की कोई राज्यशक्ति कणिक के समक्ष प्रतिरोध करने का साहस नहीं कर सकी । कणिक अनेक देशों को अपने अधीन करता हा तिमिस्र गुफा के द्वार तक पहुंच गया। अष्टम भक्त कर कूणिक ने तिमिस्र गुफा के द्वार पर दण्ड-प्रहार किया।
तिमिस्र गुफा के द्वाररक्षक देव ने अदृश्य रहते हुए पूछा- "द्वार पर कौन है ?"
कूणिक ने उत्तर दिया-"चक्रवर्ती अशोकचन्द्र ?" देव ने कहा-"चक्रवर्ती तो बारह ही होते हैं और वे हो चुके हैं। कूरिणक ने कहा-“मैं तेरहवां चक्रवर्ती हूं।"
इस पर द्वाररक्षक देव ने क्रुद्ध होकर हुंकार की और कूणिक तत्क्षण वहीं भस्मसात् हो गया । मर कर वह छठे नरक में उत्पन्न हुआ।
भगवान महावीर का परमभक्त होते हए भी कणिक स्वार्थ और तीव्र लोभ के उदय से मार्गच्युत हो गया और तीव्र आसक्ति के कारण वह दुर्गति का अधिकारी बना। करिणक की सेना कृणिक के भस्मसात् होने के दृश्य को देखकर भयभीत हो चम्पा की ओर लौट गई।
__ वस्तुतः कणिक जीवन भर भगवान् महावीर का ही परमभक्त रहा। कूणिक के महावीर-भक्त होने में ऐतिहासिकों के विचार इस प्रकार हैं :
डॉ० स्मिथ कहते हैं-"बौद्ध और जैन दोनों ही अजातशत्रु को अपनाअपना अनुयायी होने का दावा करते हैं, पर लगता है, जैनों का दावा अधिक प्राधारयुक्त है।"
___डॉ० राधाकुमुद मुखर्जी के अनुसार-"महावीर और तुद्ध की वर्तमानता में तो अजातशत्रु महावीर का ही अनुयायी था।" उन्होंने यह भी लिखा है"जैसा प्रायः देखा जाता है, जैन अजातशत्र और उदाइभद्द दोनों को अच्छे चरित्र का बतलाते हैं, क्योंकि दोनों जैन धर्म को मानने वाले ये । यही कारण है कि बौद्ध ग्रन्थों में उनके चरित्र पर कालिख पोती गई है।
इन सब प्रमाणों से यह निर्विवाद रूप से सिद्ध होता है कि कूरिणकअजातशत्रु जीवन भर भगवान् महावीर का परमभक्त रहा। १कूणिक का वास्तविक नाम- प्रलोकचन्द्र पा । मंगुली के प्रण के कारण सब उसे कूणिक कहते थे।
[प्राप० चूणि]
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