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रथमूसल संग्राम]
भगवान् महावीर जणक्खयं, जणवहं, जणप्पमई, जणसंवट्टकप्पं रुहिरकद्दमं करेमाणे सव्वप्रो समंता परिधावित्था, से तेणठेणं जाव रहमुसले संगामे ।"
गौतम द्वारा 'रसमूसल संग्राम' में मृतकों की संख्या के सम्बन्ध में किये गये प्रश्न का उत्तर देते हुए प्रभु महावीर ने कहा-“गोयमा ! छण्णउई जणसयसाहस्सीओ वहियाओ।"
भगवती सूत्र के उपर्युक्त उद्धरणों से सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है कि प्रलय के समान शक्ति रखने वाले वे दोनों अस्त्र कितने भयंकर होंगे।
उन दो महान शक्तिशाली यद्धास्त्रों को पाकर कणिक अपने आपको विश्वविजयी एवं अजेय समझने लगा, तथा संभव है, इसी कारण उसके हृदय में अधिक महत्त्वाकांक्षाएं जगीं और उसके सिर पर चक्रवर्ती बनने की धुन सवार हुई ।
उन दिनों भगवान् महावीर चम्पा के पूर्णभद्र चैत्य में विराजमान थे। कणिक भगवान महावीर की सेवा में पहुंचा। सविधि वन्दन के पश्चात उसने भगवान् से पूछा-"भगवन् ! क्या मैं भरत-क्षेत्र के छ खण्डों को जीतकर चक्रवर्ती बन सकता हूं?"
भगवान् महावीर ने कहा-"नहीं कूणिक ! तुम चक्रवर्ती नहीं बन सकते। प्रत्येक उत्सर्पिणीकाल और प्रवसर्पिणीकाल में बारह-बारह चक्रवर्ती होते हैं। तदनुसार-प्रवर्तमान अवसर्पिणीकाल के बारह चक्रवर्ती हो चुके हैं, अतः तुम चक्रवर्ती नहीं हो सकते।
कूणिक ने पुनः प्रश्न किया-"भगवन् ! चक्रवर्ती की पहचान क्या है ?"
भगवान् महावीर ने कहा-"कूणिक ! चक्रवर्ती के यहाँ चक्रादि चौदह रत्न होते हैं।"
कूरिणक ने भगवान् महावीर से चक्रवर्ती के चौदह रत्नों के सम्बन्ध में पूरी जानकारी प्राप्त की और प्रभु को वन्दन कर वह अपने राजप्रासाद में सौट माया।
कूणिक भली भाँति जानता था कि भगवान् महावीर त्रिकालदर्शी हैं, किन्तु वह वैशाली के युद्ध में महाशिलाकंटक प्रस्त्र और रथमसल यन्त्र का प्रत्यदर्भात चमत्कार देख चुका था, अतः उसके हृदय में यह महम् घर कर गया कि उन दो कल्पान्तकारी यन्त्रों के रहते संसार की कोई भी शक्ति उसे चक्रवर्ती बनने से नहीं रोक सकती। उसने उस समय के श्रेष्ठतम शिल्पियों से चक्रवर्ती के पक्रादि कृत्रिम रत्न बनवाये और प्रष्टम भक्त कर षटखण्ड-विजय के लिये उन अदभुत शक्तिशाली यन्त्रों एवं प्रबल सेना के साथ निकल पड़ा।
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