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________________ श्रेणिक की धर्मनिष्ठा भगवान् महावीर ७४१ समय श्रेणिक ने सम्यक्त्व-धर्म तथा अभयकुमार आदि ने श्रावक-धर्म स्वीकार किया। मेषकुमार और नन्दिसेन की दीक्षा भी इसी वर्ष होती है। श्रेणिक के परिवार में त्याग-वैराग्य के प्रति अभिरुचि की अभिवृद्धि उनके देहावसान के पश्चात् भी चलती रही। भगवान महावीर जब चम्पा नगरी पधारे तो श्रेरिणक से पध, महापद्य, भद्र, सुभद्र, पद्मभद्र, पग्रसेन, पद्मगल्म, नलिनीगल्म मानन्द और नन्दन नामक १० पौत्रों ने भी श्रमरण-दीक्षा ग्रहण की और अन्त समय में संलेखना के साथ काल कर क्रमशः सौधर्म प्रादि देवलोकों में वे देवरूप से उत्पन्न हए । इस प्रकार महाराज श्रेणिक की तीसरी पीढ़ी तक श्रमण धर्म की आराधना होती रही। नेमिनाथ के शासनकाल में कृष्ण की तरह भगवान् महावीर के शासन में श्रेणिक की शासन-सेवा व भक्ति उत्कृष्ट कोटि की मानी जाकर वीर-शासन के मूर्धन्य सेवकों में उनकी गणना की जाती है। महाराज श्रेणिक ने अपने शासनकाल में ही उस समय का सर्वश्रेष्ठ सेचनक हाथी और देवता द्वारा प्रदत्त अमूल्य हार चेलना के कणिक से छोटे दो पुत्रों हल्ल और विहल्लकुमार को दिये थे, जिनका मूल्य पूरे मगध राज्य के बराबर आंका जाता था। वीर निर्वाण से १७ वर्ष पूर्व कणिक ने अपने काल, महाकाल आदि दश भाइयों को अपनी पोर मिलाकर महाराज श्रेणिक को कारागृह में बन्द कर दिया और स्वयं मगध के सिंहासन पर प्रासीन हो गया। कूणिक ने अपने पिता श्रेणिक को विविध प्रकार की यातनाएं दीं। एक दिन कणिक की माता चेलना ने जब उसे श्रेणिक द्वारा उसके प्रति किये गये महान् उपकार और अनुपम प्यार की घटना सुनाई तो उसको अपने दुष्कृत्य पर बड़ा पश्चात्ताप हुअा। कूरिणक के हृदय में पिता के प्रति प्रेम उमड़ पड़ा और वह एक कुल्हाड़ी ले पिता के बन्धन काटने के लिये बड़ी तेजी से कारागार की ओर बढ़ा। श्रेणिक ने समझा कि कणिक उन्हें मार डालने के लिये कुल्हाड़ी लेकर पा रहा है। अपने पुत्र को पितृहत्या के घोर पापपूर्ण कलंक से बचाने के लिये महाराज श्रेणिक ने अपनी अंगूठी में रखा कालकुट विष निगल लिया। कणिक के वहां पहुंचने से पहले ही प्राशुविष के प्रभाव से श्रेणिक का प्राणान्त हो गया और पूर्वोपाजित निकाचित कर्मबन्ध के कारण वे प्रथम नरक में उत्पन्न हुए। १ (क) श्रुत्वा तां देशनां भर्तुः, सम्यक्त्वं श्रेणिकोनयत् । श्रावकधर्मत्वभयकुमाराधाः प्रपेदिरे ।। [त्रिष. श., १० प., ६ स०, ३१६ श्लोक] (a) एमाई धम्मकह, सोउं सेरिणय निवाइया भव्वा । समत्तं पडिवन्ना, केइ पुरण देस विरयाइ । [नेमिचन्द्रकृत महावीर चरियम् गा. १२६४] २ तीर्थंकर महावीर दूसरा भाग। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002071
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year1999
Total Pages954
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, Tirthankar, N000, & N999
File Size16 MB
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