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जैन धर्म का मौलिक इतिहास
विवाह और राज्य
एक हजार आठ लक्षण वाले विमलनाथ जब तरुण हुए तो भोगों में रति नहीं होने पर भी माता-पिता के आग्रह से प्रभु ने योग्य कन्याओं के साथ पारिणग्रहरण किया ।
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पन्द्रह लाख वर्ष कुंवर पद में बिता कर आप राज्य-पद पर आरूढ़ हुए और तीस लाख वर्ष तक प्रभु ने न्याय-नीतिपूर्वक राज्य का संचालन किया ।
पैंतालीस लाख वर्ष के बाद जब भव- विपाकी कर्म को क्षीण हुआ समझा तब प्रभु ने भवजलतारिणी ग्राहंती दीक्षा ग्रहण करने की इच्छा व्यक्त की। दीक्षा और पारणा
[विवाह और राज्य
लोकान्तिक देवों द्वारा प्रार्थित प्रभु वर्ष भर तक कल्पवृक्ष की तरह याचकों को इच्छानुसार दान देकर एक हजार राजाओं के संग दीक्षार्थ सहस्राम्र वन में पधारे और माघ शुक्ला चतुर्थी को उत्तराभाद्रपद नक्षत्र में षष्ठभक्त की तपस्या से सब पाप कर्मों का परित्याग कर दीक्षित हो गये ।
दूसरे दिन धान्यकट पुर में जाकर प्रभु ने महाराज जय के यहां परमान्न से पाररणा किया ।
केवलज्ञान
पारणा करने के पश्चात् वहां से बिहार कर दो वर्ष तक प्रभु विविध ग्राम नगरों में परिषहों को समभाव से सहन करते हुए विचरते रहे ।
फिर दीक्षास्थल में पहुंचकर अपूर्वकरण गुरणस्थान से क्षपक श्रेणी में श्रारूढ़ हुए और ज्ञानावरण आदि चार घाति-कर्मों को क्षय कर पौष शुक्ला षष्ठी को उत्तराभाद्रपद नक्षत्र में बेले की तपस्या से प्रभु ने केवलज्ञान, केवलदर्शन की प्राप्ति की ।
केवलज्ञान के पश्चात् जब प्रभु विहार कर द्वारिका पधारे और समवसररण हुआ तब राजपुरुष ने तत्कालीन वासुदेव स्वयंभू को प्रदर्शन की शुभसूचना दी। उन्होंने भी प्रसन्न होकर साढ़े बारह करोड़ रौप्यमुद्रात्रों का प्रीतिदान देकर उसको संत्कृत किया और प्रभु की देशना सुनकर जहां हजारों नरनारियों ने चारित्र-धर्म स्वीकार किया वहां वासुदेव ने भी सम्यक्त्व - धर्म स्वीकार किया । चतुर्विध संघ की स्थापना कर प्रभु ने भाव तीर्थंकर का पद सार्थक किया ।
धर्म परिवार
आपके संघ में मन्दर प्रादि छप्पन गरणधरादि सहित निम्न परिवार था :गरण एवं गणधर छप्पन (५६) केवली
पांच हजार पांच सौ (५,५०० )
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