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________________ जैन धर्म का मौलिक इतिहास [चारित्र चारित्र का भी प्रवर्तन किया। चारित्र के मख्यार्थ समता की आराधना को ध्यान में लेकर भगवान् पार्श्वनाथ ने चारित्र का विभाग नहीं किया। फिर उन्हें वैसी आवश्यकता भी नहीं थी। किन्तु महावीर भगवान के सामने एक विशेष प्रयोजन उपस्थित हुआ, एतदर्थ साधकों की विशेष शुद्धि के लिये उन्होंने सामायिक के पश्चात् छेदोपस्थापनीय चारित्र का उपदेश दिया। भगवान् महावीर ने पार्श्वनाथ के निविभाग सामायिक चारित्र को विभागात्मक सामायिक के रूप में प्रस्तुत किया । छेदोपस्थापनीय में जो चारित्र पर्याय का छेद किया जाता है, पार्श्वनाथ की परम्परा में सजग साधकों के लिये उसकी आवश्यकता ही नहीं थी, अतः उन्होंने निविभाग सामायिक चारित्र का विधान किया। भगवती सत्र के उल्लेख से स्पष्ट होता है कि जो मनि चातुर्याम धर्म का पालन करते, उनका चारित्र सामायिक कहा जाता और जब इस परम्परा को बदल कर पंच याम धर्म में प्रवेश किया, तब उनका चारित्र छेदोपस्थापनीय कहलाया।' भगवान् महावीर के समय में दोनों प्रकार की व्यवस्थाएं चलती थीं। उन्होंने अल्पकालीन निविभाग में सामायिक चारित्र को और दीर्घकाल के लिये छेदोपस्थापनीय चारित्र को मान्यता प्रदान की। महावीर ने इसके अतिरिक्त व्रतों में रात्रिभोजन-विरमण को भी अलग व्रत के रूप में प्रतिष्ठित किया । उन्होंने स्थानांग सूत्र में स्पष्ट कहा है-"आर्यो! मैंने श्रमण-निग्रंथों को स्थविरकल्प, जिनकल्प, मुडभाव, अस्नान, अदंतधावन, अछत्र, उपानत् त्याग, भूमिशय्या, फलकशय्या, काष्ठशय्या, केशलोच, ब्रह्मचर्यवास, भिक्षार्थ परगृहप्रवेश तथा लब्धालब्ध वृत्ति की प्ररूपणा की है। जैसे मैंने श्रमणों को पंचमहाव्रतयुक्त सप्रतिक्रमण अचेलक धर्म कहा गया है, वैसे महापद्म भी कथन करेंगे। __ भगवान् पार्श्वनाथ और महावीर के शासन में दूसरा अन्तर सचेल-अचेल का है, जो इस प्रकार है : पार्श्वनाथ की परम्परा में सचेल-धर्म माना जाता था, किन्तु महावीर ने अचेल धर्म की शिक्षा दी। कल्पसमर्थन में कहा है कि प्रथम और अन्तिम तीर्थंकर १ सामाइयंमि उ कए, चाउज्जामं अणुत्तरं धम्म । तिविहेण फासयंतो, सामाइयं संजो स खलु । छेत्तगा उ परियागं, पोराणं जो ठवेई अप्पारणं । धम्ममि पंचजामे, छेदोवट्ठाणो स खलु ।।भग०, श० २५, उ. ७।७८६।गा० ११२ २ स्थानांग, स्थान Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002071
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year1999
Total Pages954
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, Tirthankar, N000, & N999
File Size16 MB
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