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________________ चारित्र] भगवान् महावीर का धर्म अचेलक है और बाईस तीथंकरों का धर्म सचेलक एवं अचेलक दोनों प्रकार का है। अभिप्राय यह है कि भगवान् ऋषभदेव और महावीर के श्रमणों के लिये यह विधान है कि वे श्वेत और मानोपेत वस्त्र रखें पर बाईस तीर्थंकरों के श्रमणों के लिये ऐसा विधान नहीं है। वे विवेकनिष्ठ और जागरूक होने से चमकीले, रंग-बिरंगे और प्रमाण से अधिक भी वस्त्र रख सकते थे, क्योंकि उनके मन में उत्तम वस्त्रों के प्रति आसक्ति नहीं होती थी। ____ "अचेलक" पद का सीधा अर्थ वस्त्राभाव होता है किन्तु यहाँ "अ" का अर्थ सर्वथा अभाव न मान कर अल्प मानना चाहिये । व्यवहार में भी सम्पदाहीन को "अधन" कहते हैं। साधारण द्रव्य होने पर भी व्यक्ति व्यवहार-जगत् में "प्रधन" कहलाता है। प्राचारांग सूत्र की टीका में यही अल्प अर्थ मानकर अचेलक का अर्थ "अल्प वस्त्र" किया है। उत्तराध्ययन सूत्र और कल्प की टीका में भी मानप्रमाण सहित जीर्णप्राय और श्वेतवस्त्र को अचेल में माना गया है। जैन श्रमणों के लिये दो प्रकार के कल्प बताये गये हैं-जिनकल्प और स्थाविरकल्प । नियुक्ति और भाष्य के अनुसार जिनकल्पी श्रमण वह हो सकता है जो वज्रऋषभ नाराच संहनन वाला हो, कम से कम नव पूर्व की ततीय प्राचार-वस्तु का पाठी हो और अधिक से अधिक कुछ कम दश पूर्व तक का श्रुतपाठी हो। जिनकल्पी भी पहले स्थविरकल्पी होता है। जिनकल्प के भी दो प्रकार हैं-(१) पाणिपात्र और (२) पात्रधारी । पाणिपात्र के भी चार भेद बतलाये हैं। जिनकल्पी श्रमण नग्न और निष्प्रतिकर्म शरीरी होने से आँख का मल भी नहीं निकालते । वे रोग-परीषहों को १ आचेलुक्को धम्मो पुरिमस्स य पच्छिस्स य जिरणस्स । मज्झिमगाण जिणाणं, होई सचेलो अचेलो य॥ [कल्प समर्थन, गा० ३, पृ० १] २ अचेल:-प्रल्पचेलः । [प्राचा० टी०, पत्र २२१] ३ लघुत्व जीणंत्वादिना चेलानि वस्त्राण्यस्येत्येवमचेलकः । [उतरा० वृहद् वृत्ति, प० ३५९] (ख) "अचेलत्वं श्री आदिनाथ-महावीर साधूनां वस्त्रं मानप्रमाण सहितं जीर्णप्रायं धवलं च कल्पते । श्री अजितादि द्वाविंशती तीर्थंकर साधूनां तु पंचवणंम् ।। [कल्प सूत्र कल्पलता, प० २।१। समयसुन्दर] ४ जिनकल्पिकस्य तावज्जघन्यतो नवमस्य पूर्वस्य तृतीयमाचारवस्तु । [विशेषा० वृहद् वृत्ति, पृष्ठ १३, गा० ७ की टीका] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002071
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year1999
Total Pages954
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, Tirthankar, N000, & N999
File Size16 MB
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