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जैन धर्म का मौलिक इतिहास
[ चारित्र
सहन करते, कभी किसी प्रकार की चिकित्सा नहीं कराते । ' पात्रधारी हों या पात्र - रहित, दोनों प्रकार के जिनकल्पी रजोहरण और मुखवस्त्रिका, ये दो उपकरण तो रखते ही हैं । अतः यहाँ पर अचेलक का अर्थ सम्पूर्ण वस्त्रों का त्यागी नहीं, किन्तु अल्प मूल्य वाले प्रमाणोपेत जीर्ण-शीर्ण वस्त्र धारी समझना चाहिये ।
इसीलिये भाष्यकार ने कहा है कि अचेलक दो प्रकार के होते हैं:- सदचेल और प्रसदचेल । तीर्थंकर असद्-चेल होते हैं । वे देवदृष्य वस्त्र गिर जाने पर सर्वदा वस्त्ररहित रहते हैं । शेष सभी जिनकल्पिक आदि साधु सदचेल कहे गये हैं । कम से कम भी रजोहरण और मुखवस्त्रिका का तो उनको सद्भाव रहता ही है ।
वस्त्र रखने वाले साधु भी मूर्च्छारहित होने के कारण अचेल कहे गये हैं, क्योंकि वे जिन वस्त्रों का उपयोग करते हैं वे दोषरहित, पुराने, सारहीन और अल्प प्रमाण में होते । इसके अतिरिक्त उनका उपयोग भी कदाचित् का होता है जैसे भिक्षार्थ जाते समय देह पर वस्त्र डाला जाता है, उसे भिक्षा से लौटने पर हटा दिया जाता है । इस प्रकार कटि वस्त्र भी रात्रि में अलग कर दिया जाता है ।
लोकोक्ति में जीर्ण-शीर्ण- तार-तार फटे वस्त्र को धारण करने वाला नग्न ही कहा जाता है । जैसे कोई बुढ़िया जिसके शरीर पर पुरानी व अनेक स्थानों से फटी हुई साड़ी लिपटी है, तन्तुवाय से कहती है - "भाई ! मेरी साड़ी जल्दी तैयार कर देना । मैं नंगी फिरती हूँ ।"
तो यह फटा पुराना कपड़ा होने पर भी नग्नपन कहा गया है । इसी प्रकार अल्प वस्त्र रखने वाला मुनि अचेल माना गया है ।
१ निप्पडिकम्मसरीरा, श्रवि श्रच्छिमलंपि न श्र प्रवरिंगति । विसहंति जिरणा रोगं, कारिति कयाइ न तिगिच्छं ॥
[विशेषावश्यक प्रथम भाग, प्रथम अंश. पृ० १४, गाथा ७ की टोका की गाथा ३ ] २ (क) वृह० भा० १ उ०- - दुविहो होति प्रचेलो, संताचेलो प्रसंतचेलोय तित्थगर प्रसंत चेला, संताचेता भवे सेसा ॥
(ख) सवसंतचेलगोऽचेलगो य जं लोग - समयसंसिद्धो । तेरगावेला मुग्राप्रो संतेहि, जिरणा असंतेहि ॥
३ तह थोव जुन कुच्छिय चेलेहि वि भन्नएं प्रचेलोत्ति । जहन्तरसालिय लहं दो पोति नाग्गया मोत्ति ॥
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[विशेषावश्यक भाष्य, गा० २५६८ ]
[वि० २६०१, पृ० १०३५ ]
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