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________________ चारित्र] भगवान् महावीर ७१३ मूल बात यह है कि परिग्रह मूर्छाभाव में है । मूर्छाभाव रहित मुनियों को वस्त्रों के रहते हुए भी मूर्छाभाव नहीं होने से अचेलक कहा गया है । दशवकालिक सूत्र में स्पष्ट कहा गया है- "न सो परिग्गहो वुत्तो" वह परिग्रह नहीं है । परिग्रह मूर्छाभाव है-"मूच्छा परिग्गहो वुत्तो।" भगवान महावीर ने पार्श्वनाथ के सचेल धर्म का साधुनों में दुरुपयोग समझा और निमित्त से प्रभावित मंदमति साधक-मोह-मा न गिरे, इस हेतु अचेल धर्म के उपदेश से साधुवर्ग को वस्त्र-ग्रहण में नियन्त्रित रखा । उत्तराध्ययन सूत्र में केशी श्रमण की जिज्ञासा का उत्तर देते हुए गौतम ने कहा है कि भगवान् ने वेष धारण के पीछे एक प्रयोजन धर्म-साधना को निभाना और दूसरा साधु रूप को अभिव्यक्त करना कहा है।' ___डॉ० हर्मन जेकोबी ने भगवान महावीर की अचेलता पर भाजीवक गोशालक का प्रभाव माना है, किन्तु यह निराधार जंचता है, क्योंकि गोशालक से प्रथम ही भगवान् देवदूष्य वस्त्र गिरने से नग्नत्व धारण कर चुके थे। फिर भगवती सूत्र में स्पष्ट लिखा है "साडियागो य पाडियायो य डियाग्रो य पाहणाम्रोय चित्तफलगं च माहणे पायामेति मायामेत्ता स उत्तरोठं मुडं करोति ।" इस पाठ से यह सिद्ध होता है कि गोशालक ने भगवान् महावीर का मनसरण करते हुए उनके साधना के द्वितीय वर्ष में नग्नत्व स्वीकार किया। सप्रतिक्रमण धर्म अजितनाथ से पार्श्वनाथ तक बाईस तीर्थंकरों के समय में प्रतिक्रमण दोनों समय करना नियत नहीं था। कुछ प्राचार्यों का ऐसा अभिमत है कि इन बाईस तीथंकरों के समय में देवसिक और राइय ये दो ही प्रतिक्रमण होते थे शेष नहीं, किन्तु जिनदास महत्तर का स्पष्ट मन्तव्य है कि प्रथम और अन्तिम तीर्थंकर के समय में नियमित रूप में उभयकाल प्रतिक्रमण करने का विधान है और साथ ही दोष के समय में भी ईर्यापथ और भिक्षा प्रादि के रूप में तत्काल प्रतिक्रमण का विधान है। बाईस तीर्थंकरों के शासनकाल में दोष लगते ही शुद्धि कर ली जाती थी, उभयकाल नियम रूप से प्रतिक्रमण का उनके लिये १ विनाणेण समागम्म, धम्मसाहणमिच्छियं । जत्तत्थं गहणत्यं च, लोगे लिंगपोयणं । उ० २३ २ देसिय, राइय, पक्खिय चउमासिय वच्छरिय नामामो । दुहं पण पडिक्कमणा, मज्झिमगाणं तु दो पढ़मा। [सप्ततिशतस्थान प्राया• I Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002071
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year1999
Total Pages954
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, Tirthankar, N000, & N999
File Size16 MB
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