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जैन धर्म का मौलिक इतिहास [सप्रतिक्रमण धर्म विधान नहीं था।' स्थानांग सूत्र में कहा है कि प्रथम तथा अन्तिम तीर्थंकरों का धर्म सप्रतिक्रमण है । इस प्रकार भगवान् महावीर ने अपने शिष्यों के लिये दोष लगे या न लगे, प्रतिदिन दोनों संध्या प्रतिक्रमरण करना अनिवार्य बताया है।'
स्थित कल्प प्रथम और अन्तिम तीर्थंकर के समय में सभी (१) अचेलक्य, (२) उद्देशिक, (३) शय्यातर पिंड, (४) राजपिंड, (५) कृतिकर्म, (६) व्रत, (७) ज्येष्ठ, (८) प्रतिक्रमण, (६) मासकल्प और (१०) पर्युषणकल्प अनिवार्य होते हैं । अतः इन्हें स्थितकल्प कहा जाता है। प्रजितादि बाईस तीर्थंकरों के लिये चार कल्प-(१) शय्यातर, (२) चातुर्याम धर्म का पालन, (३) ज्येष्ठ पर्याय-वृद्ध का वंदन और (४) कृतिकर्म, ये चार स्थित और छ कल्प (१) अचेलक, (२) प्रौद्देशिक, (३) प्रतिक्रमण, (४) राजपिंड, (५) मासकल्प एवं (६) पर्युषणा ये अस्थित माने गये हैं।
भगवान महावीर के श्रमणों के लिये मासकल्प आदि नियत हैं । बाईस तीर्थंकरों के साधु चाहें तो दीर्घकाल तक भी रह सकते हैं, पर महावीर के साधुसाध्वी मासकल्प से अधिक बिना कारण न रहें, यह स्थितकल्प है। आज जो साधु-साध्वी बिना खास कारण एक ही ग्राम-नगर आदि में धर्म-प्रचार के नाम से बैठे रहते हैं, यह शास्त्र-मर्यादा के अनुकूल नहीं है ।
भगवान् महावीर के निन्हव भगवान महावीर के शासन में सात निन्हव हुए हैं, जिनमें से दो भगवान् महावीर के सामने हुए, प्रथम जमालि और दूसरा तिष्यगुप्त । जो इस प्रकार है :१ पुरिम पच्छिमएहिं उभरो कालं पडिकमितव्वं इरियावहियमागतेहिं उच्चार पासवरण
माहारादीण वा विवेगं कातूण पदोस पूच्चूसेसु, मतियारो होतु वा मा वा तहावस्सं पडिक्कमितव्वं एतेहिं चेव ठाणेहिं । मज्झिमगाणं तित्थे जदि प्रतियारो प्रत्थि तो दिवसो होतु रत्ती वा, पुष्वण्हो, प्रवरण्हो, मज्झण्हो, पुष्वरत्तोवरत्तं वा, प्रड्ढरत्तो वा ताहेचेव पडिक्कमति । नत्थि तो न पडिक्कमंति । जेण ते प्रसढा पण्णवंता परिणामगा न य पमादोबहुलो, तेण तेसिं एवं भवति, पुरिमा उज्जुजडा, पच्छिमा वकजडा नीसाणाणि मगंति पमादबहुला य, तेण तेहिं अवस्सं पडिकमितव्वं ।।
[प्राव० चू०, उत्तर भाग, पृ० ६६] २ (क) मए समणाणं निग्गंथाणं पंचमहव्वइए सपडिकम्मरणे.... [स्थानांग, स्था. ६]
(ख) सपडिक्कमणो धम्मो पुरिमस्सय पच्छिमस्स य जिणाणं ।। [प्राव०नि०गा० १२४१] ३ आचेलक्कुद्दे सिय पडिक्कमण रायपिंड मासेसु ।
पज्जुसणाकप्पाम्म य, अट्ठियकप्पो मुणेयन्वो ।। [भिधान राजेन्द्र, गाथा १] ४ मूलाचार-७।१२५-१२६ ।
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