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________________ बालक्रीड़ा] भगवान् महावीर महावीर द्वारा सर्प के हटाये जाने पर पुनः सभी बालक वहाँ चले पाये और तिदुसक खेल खेलने लगे। यह खेल दो-दो बालकों में खेला जाता है । दो बालक एक साथ लक्षित वृक्ष की ओर दौड़ते हैं और दोनों में से जो वृक्ष को पहले छू लेता है, उसे विजयी माना जाता है । इस खेल का नियम है कि विजयी बालक पराजित पर सवार होकर मूल स्थान पर प्राता है। परीक्षार्थी देव भी बालक का रूप बना कर खेल को टोली में सम्मिलित हो गया और खेलने लगा। महावीर ने उसे दौड़ में पराजित कर वृक्ष को छू लिया । तब नियमानुसार पराजित बालक को सवारी के रूप में उपस्थित होना पड़ा। महावीर उस पर आरूढ़ होकर नियत स्थान पर प्राने लगे तो देव ने उनको भयभीत करने और उनका अपहरण करने के लिए सात ताड़ के बराबर ऊँचा और भयावह शरीर बना कर डराना प्रारम्भ किया। इस अजीब दृश्य को देख कर सभी बालक घबरा गये परन्तु महावीर पूर्ववत् निर्भय चलते रहे । उन्होंने ज्ञान-बल से देखा कि यह कोई मायावी जीव हमसे वंचना करना चाहता है। ऐसा सोच कर उन्होंने उसकी पीठ पर साहसपूर्वक ऐसा मुष्टि-प्रहार किया कि देव उस प्राघात से चीख उठा और गेंद की तरह उसका फूला हुमा शरीर दब कर वामन हो गया। उस देव का मिथ्याभिमान चूर-चूर हो गया। देव ने बालक महावीर से क्षमायाचना करते हुए कहा-"वर्तमान ! इन्द्र ने जिस प्रकार प्रापके पराक्रम की प्रशंसा की वह अक्षरशः सत्य सिद्ध हुई । वास्तव में आप वीर ही नहीं, महावीर हैं।" इस प्रकार महावीर की वीरता, धीरता और सहिष्णुता बाल्यावस्था से ही अनुपम थी। जीयंकर का प्रतुल बल भगवान महावीर जन्म से ही प्रतुल बली थे। उनके बल की उपमा देते हुए कहा गया है कि-बारह सुभटों का बल एक वृषभ में, वृषभ से दश गुना बल एक अश्व में, अश्व से बारह गुना बल एक महिष में, महिष से पन्द्रह गुना बल एक गज में, पाँच सौ गजों का बल एक केशरीसिंह में, दो हजार सिंहों का बल एक अष्टापद में, दस लाख अष्टापदों का बल एक बलदेव में, बलदेव से दुगना बल एक वासुदेव में, वासुदेव से द्विगुरिणत बल एक चक्रवर्ती में, चक्रवर्ती से लाख गुना बल एक नागेन्द्र में, नागेन्द्र से करोड़ गुना बल एक इन्द्र में और इन्द्र से अनन्त गुना अधिक बल तीर्थंकर की एक कनिष्ठा अंगली में होता है। सचमुच तीर्थकर के बल की तुलना किसी से नहीं की जा सकती। उनका बल १ तस्स तेसु रुक्खेसु जो पढ़मं विलग्गति, जो पढ़मं प्रोलुगति सो चेड़ रूवाणि वाहेति ।। माव० चू० भा० १, पत्र २४६ २ (क) स व्यरंसीवर्धनान्न, यावत्तावन्महोजसा। माहत्य मुष्टिना पृष्ठे, स्वामिना वामनीकृतः । त्रि. पु. च,. १०२ श्लो. २१७ (स) प्राव. पू. १ भा., पृ. २४६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002071
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year1999
Total Pages954
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, Tirthankar, N000, & N999
File Size16 MB
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