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________________ ५६२ जैन धर्म का मौलिक इतिहास [संगोपन और सेवा-शुश्रूषा के लिए पांच परम दक्ष धाइयाँ नियुक्त की गई, जो कि अपने-अपने काय को यथासमय विधिवत् निष्ठापूर्वक संपादित करतीं। उनमें से एक का काम दूध पिलाना, दूसरी का स्नान-मंडन कराना, तीसरी का वस्त्रादि पहनाना, चौथी का क्रीड़ा कराना और पांचवीं का काम गोद में खिलाना था। बालक महावीर की बालक्रीड़ाएँ केवल मनोरंजक ही नहीं अपितु शिक्षाप्रद एवं बलवर्द्धक भी होती थीं। एक बार प्राप समवयस्क साथियों के साथ राजभवन के उद्यान में 'संकूली' नामक खेल खेल रहे थे। उस समय इनकी अवस्था पाठ वर्ष के लगभग थी, पर साहस और निर्भयता में आपकी तुलना करने वाला कोई नहीं था। कुमार की निर्भयता देख कर एक बार देवपति शक्र ने देवों के समक्ष उनकी प्रशंसा करते हुए कहा- "भरत क्षेत्र में बालक महावीर बाल्यकाल में ही इतने साहसी और पराक्रमी हैं कि देव-दानव और मानव कोई भी उन्हें पराजित नहीं कर सकता।" इन्द्र के इस कथन पर एक देव को विश्वास नहीं हुआ और वह परीक्षा के लिए महावीर के क्रीड़ा-प्रांगण में पाया। संकुली खेल की यह रीति है कि किसी वृक्ष-विशेष को लक्षित कर सभी कोड़ारत बालक उस ओर दौड़ते हैं । जो बालक सबसे पहले उस वृक्ष पर चढ़ कर उतर पाता है, वह विजयी माना जाता है.और पराजित बालक के कन्धे पर सवार होकर वह उस स्थान तक जाता है जहाँ से दौड़ प्रारम्भ होती है । परीक्षक देव विकट विषधर सर्प का रूप बना कर वृक्ष के तने पर लिपट गया और फूत्कार करने लगा। महावीर उस समय पेड़ पर चढ़े हुए थे। उस भयंकर सर्प को देखते ही सभी बालक डर के मारे इधर-उधर भागने लगे, किन्तु महावीर तनिक भी विचलित नहीं हुए। उन्होंने भागने वाले साथियों से कहा"तुम सब भागते क्यों हो? यह छोटा सा प्राणी अपना क्या बिगाड़ने वाला है ? इसके तो केवल मह ही है, हम सब के पास तो दो हाथ, दो पैर, एक मख, मस्तिष्क पोर बुद्धि प्रादि बहुत से साधन हैं । प्रायो, इसे पकड़ कर अभी दूर फेंक प्रायें।" । यह सुन कर सभी बच्चे एक साथ बोल उठे-"महावीर, भूल से भी इसको छना नहीं, इसके काटने से प्रादमी मर जाता है।" ऐसा कह कर सब बच्चे वहां से भाग गये। महावीर ने निःशंक भाव से बायें हाथ से सर्प को पकडा पौर रज्जु की तरह उठा कर उसे एक ओर डाल दिया।' १ (क) यहि समं सुकलिकउएण प्रभिरमति। [मा.पू., पृ. २४६ पूर्वभाग] (स) स्मित्वा रमिवोरिक्षप्य, तं विक्षेप क्षितो विभुः । त्रिपु. प., १०१२।१०७ श्लो. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002071
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year1999
Total Pages954
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, Tirthankar, N000, & N999
File Size16 MB
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