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भगवान् श्री चन्द्रप्रभ स्वामी
भगवान् सुपार्श्वनाथ के बाद माठवें तीर्थंकर श्री चन्द्रप्रभ स्वामी हुए ।
पूर्वभव धातकीखण्ड में मंगलावती नगरी के महाराज पद्म के भव में इन्होंने उच्च योगों की साधना की, फलतः इनको वैराग्य हो गया और उन्होंने युगन्धर मुनि के पास संयम ग्रहण कर दीर्घकाल तक चारित्र-धर्म का पालन करते हुए बीस स्थानों की आराधना की और तीर्थंकर नाम कर्म का उपार्जन किया। अन्त समय की आराधना से काल-धर्म प्राप्त कर ये विजय-विमान में अहमिन्द्र रूप से उत्पन्न हुए।
विजय विमान से निकल कर महाराज पद्म का जीव चैत्र कृष्णा पंचमी को अनुराधा नक्षत्र में चन्द्रपुरी के राजा महासेन की रानी सुलक्षणा के यहां गर्भ रूप में उत्पन्न हुआ। महारानी सुलक्षणा ने उसी रात्रि में परम सुखदायी फलदायक चौदह शुभ स्वप्न देखे।
सुखपूर्वक गर्भकाल को पूर्ण कर माता सुलक्षणा ने पौष कृष्णा (द्वादशी) एकादशी के दिन' अनुराधा नक्षत्र में अर्द्धरात्रि के समय पुत्ररत्न को जन्म दिया। देव-देवेन्द्र ने अति-पाण्डु-कम्बल-शिला पर प्रभु का जन्माभिषेक बड़े उल्लास एव उत्साहपूर्वक मनाया।
नामकरण महाराज महासेन ने जन्म-महोत्सव के बाद बारहवें दिन नामकरण के लिये मित्रजनों को एकत्र कर कहा-"बालक की माता ने गर्भकाल में चन्द्रपान की इच्छा पूर्ण की और इस बालक के शरीर की प्रभा भी चन्द्र जैसी है, अतः बालक का नाम चन्द्रप्रभ रखा जाता है ।"३
१ शलाका पुरुष चरित्र के अनुसार जन्मतिथि पौष कृष्णा १३ मानी गई है । त्रि.ष.३।६।३२ २ (क) गर्भस्थेऽस्मिन् मातुरासीच्चन्द्रपानाय दोहदः ।
चन्द्राभश्चैष इत्याबच्चन्द्रप्रभममु पिता ।। मि. श. पु. च. ३।६।४६ (ख) पिउणा य 'चंदप्पहसमाणो' ति कलिऊण चंदप्पहो ति णामं कयं भगवप्रो ।
च. म. पु. च., १८
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