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________________ जैन धर्म का मौलिक इतिहास [ ब्रह्मदत्त "हम दोनों भाई उद्यान में लौटे और हमने विचार किया- इस नश्वर शरीर के पोषण हेतु हमें भिक्षार्थ भ्रमण करते हुए अनेक कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है । हम निरीह-निर्मोही साधुनों को आहार एवं इस शरीर से क्या प्रयोजन है ? ऐसा विचार कर हम दोनों भाइयों ने संलेखना कर चारों प्रकार के आहार का जीवन भर के लिए परित्याग कर दिया । " ४६२ "उधर चक्रवर्ती सनत्कुमार ने अपराधी का पता लगाने के लिए अपने अधिकारियों को आदेश देते हुए कहा- "मेरे राज्य में मुनि को कष्ट देने का किसने दुस्साहस किया ? इसी समय उसे मेरे सम्मुख प्रस्तुत किया जाय ।" " तत्क्षण नमूची अपराधी के रूप से प्रस्तुत किया गया । " " सनत्कुमार ने कुद्ध हो कर्कश स्वर में कहा - "जो साधुत्रों की सत्कारसम्मानादि से पूजा नहीं करता वह भी मेरे राज्य में दण्डनीय है, इस दुष्ट ने तो महात्मा को ताड़ना देकर बड़ा कष्ट पहुँचाया है। इसे चोर की तरह रस्सों से बांध कर सारे नगर में घुमाया जाय और मेरी उपस्थिति में मुनियों के समक्ष प्रस्तुत किया जाय । मैं इसे कठोर से कठोर दण्ड दूंगा ताकि भविष्य में कोई भी इस प्रकार का धर्मपूर्ण साहस न कर सके ।” "नमूची को रस्सों से बाँध कर सारे नगर में घुमाया गया । सनत्कुमार अपने अनुपम ऐश्वर्य के साथ हमारे पास श्राया और रस्सों से बँधे हुए नमूची को हमें दिखाते हुए बोला- “ पूज्यवर ! आपका यह अपराधी प्रस्तुत है । श्राज्ञा दीजिये, इसे क्या दण्ड दिया जाय ?” "हमने चक्रवर्ती को उसे मुक्त कर देने को कहा । तदनुसार सनत्कुमार ने भी उसे तत्काल मुक्त कर अपने नगर से बाहर निकलवा दिया ।" "उसी समय सनत्कुमार की चौंसठ हजार राजमहीषियों के साथ पट्टमहिषी सुनन्दा हमें वन्दन करने के लिए आई ।' मुनि संभूत के चरणों में नमस्कार करते समय स्त्री-रत्न सुनन्दा के भौंरों के समान काले-घुंघराले, सुगन्धित लम्बे बालों की सुन्दर लटी का संभूत के चरणों से स्पर्श हो गया । विधिवत् वन्दन के पश्चात् चक्रवर्ती अपने समस्त परिवार सहित लौट गया ।" १ चउप्पन्न महापुरिस चरियं में किसी दूसरे मुनि को, जो उस उद्यान में ठहरे हुए थे, चक्रवर्ती की रानियों का वन्दन हेतु श्राने का उल्लेख है । [ पृष्ठ २१६] २ तस्याश्चालकसंस्पर्श, संभूतमुनिरन्वभूत् । रोमांचितश्च सद्योऽभूच्छलान्वेषी हि मन्मथः ॥६।। Jain Education International [ त्रिषष्टि श. पु. च. पर्व ६, सर्ग १] For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002071
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year1999
Total Pages954
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, Tirthankar, N000, & N999
File Size16 MB
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