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________________ चक्रवर्ती] भगवान् श्री मरिष्टनेमि ४६३ "हम दोनों साधु समाधिपूर्वक साथ-साथ ही अपनी प्रायु पूर्ण कर सौधर्म कल्प के नलिनी गुल्म (पपगुल्म) नामक विमान में देव हुए। वहाँ हम दोनों दिव्य सुखों का उपभोग करते रहे। देव प्रायु पूर्ण होने पर मैं पुरिमताल नगर । के महान समद्धिशाली गणपुञ्ज नामक श्रेष्ठी की पत्नी नन्दा के गर्भ से उत्पन्न हुप्रा और युवा होने पर भी विषय-सुखों में नहीं उलझा तथा एक मुनि के पास धर्मोपदेश सुनकर प्रवजित हो गया। संयम का पालन करते हुए अनेक क्षेत्रों में विचरण करता हुमा मैं इस उद्यान में आया और उद्यान-पालक के मुख से ये गाथाएं सुनकर मुझे जाति-स्मरण ज्ञान हो गया। इस छठे जन्म में हम दोनों भाइयों का वियोग किस कारण से हुमा, इसका मुझे पता नहीं।' यह सुनकर सब श्रोता स्तब्ध रह गये और साश्चर्य विस्फारित नेत्रों से कभी मुनिवर की ओर एवं कभी ब्रह्मदत्त की ओर देखने लगे। ब्रह्मदत्त ने कहा-"महामुने ! इस जन्म में हम दोनों भाइयों के बिछुड़ जाने का कारण मुझे मालूम है । चक्रवर्ती सनत्कुमार के अद्भुत ऐश्वर्य और उसके सुनन्दा आदि स्त्रीरत्नों के अनुपम रूप-लावण्य को देखकर मैंने तत्क्षण निदान कर लिया था कि यदि मेरी इस तपस्या का कुछ फल है तो मुझे भी चक्रवर्ती के सम्पूर्ण ऐश्वर्य की प्राप्ति हो । मैंने अपने इस अध्यवसाय की अन्तिम समय तक पालोचना निन्दा नहीं की, अतः सौधर्म देवलोक की आयुष्य पूर्ण होने पर उस निदान के कारण मैं छह खण्ड का अधिपति बन गया और देवताओं के समान यह महान् ऋद्धि मुझे प्राप्त हो गई। मेरे इस विशाल राज्य एवं ऐश्वर्य को आप अपना ही समझिये । अभी आपकी इस युवावस्था में विषयसुखों और सांसारिक भोगों के उपभोग करने का समय है । आप मेरे पाँच जन्मों के सहोदर हैं, अतः यह समस्त साम्राज्य आपके चरणों में समर्पित है । आइये! आप स्वेच्छापूर्वक सांसारिक सुखों का यथारुचि उपभोग कीजिये और जब १ (क) ता ण याणामि छट्ठीए जातीए विप्रोमो कहमम्ह जामो त्ति । [चउप्पन्न महापुरिस चरियं, पृष्ठ २१७] (ख) त्रिषष्टिशलाका पुरुष चरित्र में संभूत द्वारा किये गये निदान का चित्त को उसी समय पता चल जाने और चित्त द्वारा संभूत को निदान न करने के सम्बन्ध में समझाने का उल्लेख है, किन्तु उत्तराध्ययन सूत्र के अध्याय १३ की गाथा २८ और २६ से स्पष्ट है कि चित्त को संभूत के निदान का ज्ञान नहीं था। २ हत्थिणपुरम्मि चित्ता, दट्टणं नरवई महिड्ढियं कामभोगेसु गिद्धणं, नियाणमसुहं कडं ॥२८॥ तस्स मे अपडिकन्तस्स, इमं एयारिसं फलं । जाणमाणो वि जं धम्म, कामभोगेसु मुच्छिो ॥२६॥ [उत्तराध्ययन सूत्र, मध्ययन १३] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002071
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year1999
Total Pages954
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, Tirthankar, N000, & N999
File Size16 MB
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