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जैन धर्म का मौलिक इतिहास
[ब्रह्मदत
सुखोपभोग से सब इन्द्रियाँ तृप्त हो जायं तब वृद्धावस्था में संयम लेकर प्रात्मकल्याण की साधना कर लेना। तपस्या से भी आखिर सब प्रकार की समृद्धि, ऐश्वर्य और भोगोपभोग की प्राप्ति होती है, जो आपके समक्ष सहज उपस्थित है, फिर आपको तपस्या करने की क्या आवश्यकता है ? महान् पुण्यों के प्रकट होने से मुझे आपके दर्शन हुए हैं । कृपा कर इच्छानुसार इस ऐश्वर्य का प्रानन्द लीजिये, यह सब कुछ आपका ही है।"
मुनि चित्त ने कहा-"चक्रवतिन् ! इस निस्सार संसार में केवल धर्म ही सारभूत है। शरीर, यौवन, लक्ष्मी, ऐश्वर्य, समृद्धि और बन्धु-बान्धव, ये सब जल-बदबद के समान क्षरण-विध्वंसी हैं। तुमने षटखण्ड की साधना कर बहिरंग शत्रुओं पर विजय प्राप्त करली, अब मुनिधर्म अंगीकार कर कामक्रोधादि अन्तरंग शत्रुओं को भी जीत लो, जिससे कि तुम्हें मुक्ति का अनन्त शाश्वत सुख प्राप्त हो सके।"
"प्रगाढ़ स्नेह के कारण तुम मुझे अपने ऐश्वर्य का उपभोग करने के लिये आग्रहपूर्वक आमन्त्रित कर रहे हो, पर मैंने तो प्राप्त संपत्ति का भी सहर्ष परित्याग कर संयम ग्रहण किया है, क्योंकि मैं समस्त विषय-सुखों को विषवत् घातक और त्याज्य समझता हूँ।"
"तुम स्वयं यथावत् यह अनुभव कर रहे हो कि हम दोनों ने दास, मृग, हंस और मातंग के भवों में कितने दारुण दुःख देखे एवं तपश्चरण के प्रभाव से सौधर्म कल्प के दिव्य सुखों का उपभोग किया। पुण्य के क्षीण हो जाने से हम देवलोक से गिरकर इस पृथ्वी पर उत्पन्न हए हैं। यदि तुमने इस अलभ्य मानवजन्म का मुक्तिपथ की साधना में उपयोग नहीं किया तो और भी अधोगतियों में असह्य दुःख उठाते हुए तुम्हें भव-भ्रमण करना पड़ेगा।"
"इस आर्य धरा पर तुमने श्रेष्ठ कुल में मानव-जन्म पाया है । इस अमूल्य मानव-जन्म को विषय-सुखों में व्यर्थ ही बिताना अमृत को कण्ठ में न उतार कर पैर धोने के उपयोग में लेने के समान है। राजन् ! तुम यह सब जान-बूझकर भी बालक की तरह अनन्त दुःखदायी इन्द्रिय-सुख में क्यों लुब्ध हो रहे हो?"
ब्रह्मदत्त ने कहा-भगवन् ! जो आपने कहा है, वह शतप्रतिशत सत्य है। मैं भी जानता हूँ कि विषयासक्ति सब दुःखों की जननी और सब अनर्थों की मूल है, किन्तु जिस प्र.ार गहरे दलदल में फँसा हा हाथी चाहने पर भी उससे बाहर नहीं निकल सकता, उसी प्रकार मैं भी निदान से प्राप्त इन कामभोगों के कीचड़ में बुरी तरह फँसा हुआ हूँ, अतः मैं संयम ग्रहण करने में असमर्थ हूँ।"
चित्त ने कहा- "राजन् ! यह दुर्लभ मनुष्य-जीवन तीव्र गति से बीतता चला जा रहा है, दिन और रात्रियां दौड़ती हुई जा रही हैं। ये काम-भोग भी
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