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चक्रवर्ती]
भगवान् श्री प्ररिष्टनेमि
जिनमें तुम फसे हुए हो सदा बने रहने वाले नहीं है । जिस प्रकार फलविहीन वृक्ष को पक्षी छोड़कर चले जाते हैं, उसी प्रकार ये काम भोग एक दिन तुम्हें अवश्य छोड़ देंगे ।"
अपनी बात समाप्त करते हुए मुनि ने कहा- "राजन् ! निदान के कारण तुम भोगों का पूर्णतः परित्याग करने में असमर्थ हो, पर तुम प्राणिमात्र के साथ मैत्री रखते हुए परोपकार के कार्यों में तो संलग्न रहो, जिससे कि तुम्हें दिव्य सुख प्राप्त हो सके ।"
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यह कहकर मुनि चित्त वहां से अन्यत्र विहार कर गये । उन्होंने अनेक वर्षों तक संयम का पालन करते हुए कठोर तपस्या की प्राग में समस्त कर्मों को भस्मसात् कर अन्त में शुद्ध-बुद्ध हो निर्वाण प्राप्त किया ।
मुनि के चले जाने के पश्चात् ब्रह्मदत्त अपनी चक्रवर्ती की ऋद्धियों और राज्यश्री का उपभोग करने लगा। भारत के छह ही खण्डों के समस्त भूपति उसकी सेवा में सेवक की तरह तत्पर रहते थे । वह दुराचार का कट्टर विरोधी
था ।
एक दिन ब्रह्मदत्त युवनेश्वर ( यूनान के नरेश) से उपहार में प्राप्त एक अत्यन्त सुन्दर घोड़े पर आरूढ़ हो उसके वेग की परीक्षा के लिये काम्पिल्यपुर के बाहर घूमने को निकला । चाबुक की मार पड़ते ही घोड़ा बड़े वेग से दौड़ा । ब्रह्मदत्त द्वारा रोकने का प्रयास करने पर भी नहीं रुका और अनेक नदी, नालों एवं वनों को पार करता हुआ दूर के एक घने जंगल में जा रुका ।
उस वन में सरोवर के तट पर उसने एक सुन्दर नागकन्या को किसी जार पुरुष के साथ संभोग करते देखा और इस दुराचार को देख कर वह क्रोध से तिलमिला उठा । उसने स्वैर और स्वैरिणी को अपने चाबुक से धुनते हुए उनकी चमड़ी उधेड़ दी ।
थोड़ी ही देर में ब्रह्मदत्त के अंगरक्षक अश्व के पदचिह्नों का अनुसरण करते हुए वहाँ आ पहुँचे और वे भी उनके साथ काम्पिल्यपुर लौट आये ।
उधर उस स्वैरिणी नागकन्या ने चाबुक की चोटों से लहूलुहान अपना तन अपने पति नागराज को बताते हुए करुण पुकार की - " नाथ ! प्राज तो आपकी प्राणप्रिया को कामुक ब्रह्मदत्त ने मार ही डाला होता । मैं अपनी सखियों के साथ वन-विहार एवं जल क्रीड़ा के पश्चात् लौट रही थी कि मुझे उस स्त्री लम्पट ने देखा और वह मेरे रूप लावण्य पर मुग्ध हो मेरे पतिव्रत धर्म को नष्ठ करने के लिए उद्यत हो गया । मेरे द्वारा प्रतीकार करने पर मुझे निर्दयतापूर्वक चाबुक से पीटने लगा । मैंने बार-बार आपका नाम बताते हुए
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