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________________ ૪૬૬ जैन धर्म का मौलिक इतिहास ब्रह्मदत्त चक्रवर्ती उससे कहा कि मैं महान् प्रतापी नागराज की पतिव्रता प्रेयसी हूँ, पर वह अपने चक्रवर्तित्व के घमण्ड में प्रापसे भी नहीं डरा और मुझ पतिपरायणा प्रबला को तब तक पीटता ही रहा जब तक मैं अधमरी हो मूच्छित नहीं हो गई ।” यह सुन कर नागराज प्रकुपित हो ब्रह्मदत्त का प्रारणान्त कर डालने के लिए प्रच्छन्न रूप से उसके शयनागार में प्रविष्ट हुभ्रा । उस समय रात्रि हो चुकी थी और ब्रह्मदत्त पलंग पर लेटा हुआ था । उस समय राजमहिषी ने ब्रह्मदत्त से प्रश्न किया - "स्वामिन् ! प्राज प्राप अश्वारूढ़ हो अनेक प्ररण्यों में घूम आये हैं, क्या वहाँ आपने कोई प्राश्चर्यजनक वस्तु भी देखी ?" उत्तर में ब्रह्मदत्त ने नागकन्या के दुश्चरित्र और अपने द्वारा उसकी पिटाई किये जाने की सारी घटना सुना दी । यह त्रिया चरित्र सुनकर छिपे हुए नागराज की श्राँखें खुल गईं । उसी समय ब्रह्मदत्त शारीरिक शंका निवारणार्थ शयन कक्ष से बाहर निकला तो उसने कान्तिमान नागराज को साञ्जलि मस्तक झुकाये अपने सामने खड़े देखा । अभिवादन के पश्चात् नागराज ने कहा- "नरेश्वर ! जिस पुंश्चली नागकन्या को प्रापने दण्ड दिया, उसका मैं पति हूँ। उसके द्वारा प्राप पर लगाये गये प्रसत्य आरोप से क्रुद्ध हो मैं प्रापके प्रारण लेने प्राया था पर भाप के मुँह से वास्तविक तथ्य सुनकर आप पर मेरा प्रकोप परम प्रीति में परिवर्तित हो गया है । दुराचार का दमन करने वाली प्रापकी दण्ड-नीति से मैं प्रत्यधिक प्रभावित मौर प्रसन्न हूँ, कहिये मैं प्रापकी क्या सेवा करू ?" - ब्रह्मदत्त ने कहा – “नागराज ! मैं यह चाहता हूं कि मेरे राज्य में परस्त्रीगमन, चोरी और अकाल-मृत्यु का नाम तक न रहे ।" "ऐसा ही होगा", यह कहते हुए नागराज बोला- "भारतेश ! प्रापकी परोपकारपरायणता प्रशंसनीय है । अब भाप कोई निज हित की बात कहिये ।" ब्रह्मदत्त ने कहा- "नागराज ! मेरी अभिलाषा है कि मैं प्राणिमात्र की भाषा को समझ सकेँ ।” नागराज बोला- "राजन् ! मैं वास्तव में भाप प्रसन्न हूँ, इसलिये यह प्रदेय विद्या भी प्रापको देता हूँ, पर प्रौर कंठोर नियम को श्राप सदा ध्यान में रखें कि किसी Jain Education International For Private & Personal Use Only पर बहुत ही अधिक इस विद्या के घटल प्रारणी की बोली को www.jainelibrary.org
SR No.002071
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year1999
Total Pages954
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, Tirthankar, N000, & N999
File Size16 MB
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