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जैन धर्म का मौलिक इतिहास [भ० सुमतिनाथ रेक से प्रफुल्लित, लोचनयुगल हर्षाश्रुओं से प्रपूरित और रोम-रोम पुलकित हो उठा । साश्चर्य उसने सोचा-"यह महापुरुष कौन हैं, जो परिपूर्ण यौवनकाल में विश्वविजयी कामदेव पर विजय प्राप्त कर श्रमण बन गये हैं। तो चलू मैं इनसे धर्म के विषय में कुछ विशिष्ट ज्ञान प्राप्त करू।" यह विचार कर राजकुमार आचार्यश्री की सेवा में उपस्थित हुआ। आचार्यश्री और श्रमणवर्ग को वन्दन कर वह उनके समक्ष बैठ गया। कुछ क्षणों तक प्राचार्यश्री के दर्शनों से अपने अन्तर्मन को आप्यायित करने के पश्चात् पुरुषसिंह सविनय, सांजलि शीश झुका बोले-"भगवन् ! यह तो मैं आपके महान् त्याग से ही समझ गया कि यह संसार निस्सार है । संसार के सुख नीरस हैं, कर्मों का परिपाक अतीव विषम है, तथापि यह बताने की कृपा कीजिये कि संसार सागर से पार उतारने में कौनसा धर्म सक्षम है ?"
आचार्यश्री विनयानन्द ने राजकुमार का प्रश्न सुनकर कहा-"सौम्य ! तुम धन्य हो कि इस प्रकार की रूप-यौवन सम्पदा के स्वामी होते हुए भी तुम्हारे अन्तर्मन में पूर्वाजित पुण्य के प्रभाव से धर्म के प्रति रुचि जागृत हुई है। दान, शील, तप और भावना के भेद से धर्म चार प्रकार का है । दान भी चार प्रकार का है-ज्ञानदान, अभयदान, धर्मोपग्रहदान और अनुकम्पादान । ज्ञानदान से जीव बन्ध, मोक्ष और सकल पदार्थों का ज्ञान प्राप्त कर हेय का परित्याग एवं उपादेय का ग्रहरण-आचरण करते हैं। अधिक क्या कहा जाय, जीव इहलोक और परलोक में सुखों का भागी ज्ञान से ही होता है। ज्ञानदान वस्तुतः ज्ञान का दान करने वाले और ग्रहण करने वाले दोनों ही के लिये सौख्यप्रदायी है।" दूसरा दान है-अभयदान । ज्ञान प्राप्त करने के पश्चात ही जीवों की अभयदान की ओर प्रवृत्ति होती है। पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु एवं वनस्पति काय के एकेन्द्रिय जीवों और विकलेन्द्रिय तथा पंचेन्द्रिय जीवों की मन, वचन, तथा काया से रक्षा करना-उनकी हिंसा न करना, उन्हें भयरहित स्थिति प्रदान करना-जीवनदान देना-यह अभयदान है। अभयदान वास्तव में महादान है। क्योंकि सभी जीव, चाहे वे कितने ही दुःखी क्यों न हों, जीना चाहते हैं, उन्हें जीवन ही सर्वाधिक प्रिय है। अत: प्रत्येक मुमुक्षु एवं प्रत्येक विवेकी का यह सबसे पहला परम आवश्यक कर्तव्य है कि वह प्राणिमात्र को अभयदान प्रदान करे।
तीसरा दान है.-धर्मोपग्रह दान । तप, संयम में निरत साधक निश्चिन्तता और दृढ़तापूर्वक निर्बाध रूप से निरन्तर धर्माराधन में प्रवत्त होते रहें-इसके लिए उनको आठ मदस्थानों से रहित-दायकशुद्ध, ग्राहकशुद्ध, कालशुद्ध और भावशुद्ध प्राशुक अशन, पान, औषध, भेषज्य, वस्त्र, पात्र, पाठ, फलक आदि धर्म उपकरणों का दान देना वस्तुतः निर्जरा आदि महान् फलों का देने वाला
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