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________________ ६३२ जैन धर्म का मौलिक इतिहास [केवलीचर्या का बारहवां वर्ष केवलीचर्या का बारहवां वर्ष वर्षाकाल पूर्ण होने पर भगवान् ने वारिणय ग्राम से विहार किया और ब्राह्मणकुड के 'बहुशाल' चैत्य में आकर विराजमान हुए । जमालि अनगार ने यहीं पर भगवान् से अलग विचरने की अनुमति मांगी और उनके मौन रहने पर अपने पाँच सौ अनुयायी साधुओं के साथ वह स्वतन्त्र विहार को निकल पड़ा। प्रभु भी वहाँ से 'वत्स' देश की अोर विहार करते हुए कौशाम्बी पधारे । यहाँ चन्द्र और सूर्य अपने मूल विमान से वन्दना को आये थे।' प्राचार्य शीलांक ने चन्द्र सूर्य का अपने मूल विमानों से राजगृह में आगमन बताकर इसे आश्चर्य बताया है। कौशाम्ती से महावीर राजगृह पधारे और 'गुणशील' चैत्य में विराजमान हुए। यहां 'तुगिका' नारी के श्रावकों की बड़ी ख्याति थी। एक बार तुगिका में पापित्य नन्दादि स्थविरों ने श्रावकों के प्रश्न का उत्तर दिया। जिसकी चर्चा चल रही थी। भगवान गौतम ने भिक्षा के समय नगर में सूनी हई चर्चा का निर्णय' प्रभु से चाहा ता भगवान् बोले-"गौतम ! पावापत्य स्थविरों ने जो तप संयम का फः 'ताया, वह ठीक है। मैं भी इसी प्रकार कहता हूँ"3 फिर भगवान् ने तथारूप हण की पर्युपासना के फल बताते हुए कहा-"श्रमणों की पर्यपासना का प्रथम फल अपूर्वज्ञान श्रवण, श्रवण से ज्ञान, ज्ञान से विज्ञान, विज्ञान से पच्चखाण अर्थात त्याग, पच्चखाण से संयम, संयम से कर्मास्रव का निरोध, अनास्रव से तप, तप से कर्मनाश, कर्मनाश से अक्रिया और प्रक्रिया से सिद्धिफल प्राप्त होता है ।" इसी वर्ष प्रभु के शिष्य 'वेहास' और 'अभय' आदि ने विपुलाचल पर अनशन कर देवत्व प्राप्त किया। इस बार का वर्षाकाल राजगृह में ही पूर्ण हुआ। केवलीचर्या का तेरहवां वर्ष वर्षाकाल के पश्चात् विहार करते हुए भगवान् फिर चम्पा पधारे और वहां के 'पूर्णभद्र' उद्यान में विराजमान हुए । चम्पा में उस समय 'कोरिणक' का राज्य था। भगवान के पाने की बात सुनकर कौणिक बड़ी सज-धज से वन्दन करने को गया। कौणिक ने भ. Tन के प्रवृत्ति-वृत्त (कुशल समाचार) जानने की बड़ी व्यवस्था कर रक्खी थी। पने राजपुरुषों द्वारा भगवान् के विहारवृत्त सुन कर ही वह प्रतिदिन भोजन करता था। भगवान ने कौणिक आदि १ त्रिषिष्टशलाकापुरुष, ५० १०, स० ८, श्लोक ३३७-३५३ २ खः पयहा दोवि दिणाहिव तारयाहिवइणौ सविमाणा चेव भयवनो समीवं । पोइण्णा रिणययप्पएसानो । च० म० पु. च., पृ. ३०५ ३ भगवती शतक (घासीलालजी), श०, उ० ५, पू, सूत्र १४, पृ. ९३७ । ४ प्रोपपातिक सूत्र १३ से २१ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002071
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year1999
Total Pages954
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, Tirthankar, N000, & N999
File Size16 MB
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