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________________ वर्ण, लक्षण, कुमारकाल, दीक्षातप, दीक्षाकाल, साधनाकाल, निर्वाणतप, निर्वाणकाल आदि मान्यताओं में श्वेताम्बर एवं दिगम्बर दोनों परम्पराओं का प्रायः साम्य है। नाम, स्थान, तिथि आदि का भेद, श्रुतिभेद या गणनाभेद से हो गया है, उससे मूल वस्तु में कोई अन्तर नहीं पड़ता। भगवान् वासुपूज्य, मल्ली, अरिष्टनेमि, पार्श्वनाथ और महावीर इन पांच तीर्थंकरों को दोनों परम्पराओं में कुमार माना गया है। अरिष्टनेमि, मल्ली, महावीर, वासुपूज्य और पार्श्वनाथ इन पांचों ने कुमारकाल में और शेष १९ तीर्थंकरों ने राज्य करने के पश्चात् दीक्षा ग्रहण की इस प्रकार का उल्लेख तिलोयपण्णत्ती में किया गया है। कुमारकाल के साथ राज्य का उल्लेख होने के कारण वे पांचों तीर्थंकर अविवाहित ही दीक्षित हुए हों ऐसा स्पष्ट नहीं होता। इस अस्पष्टता के कारण दोनों परम्पराओं में पार्व, वासुपूज्य और महावीर के विवाह के विषय में मतैक्य नहीं रहा। प्रस्तुत ग्रन्थ में तीर्थंकर परिचय-पत्र एवं प्रत्येक तीर्थंकर के जीवन-परिचय में यथास्थान उन मतभेद के स्थलों का भी निर्देश किया है। कुछ ऐसे भी मतभेद हैं जो परम्परा से विपरीत होने के कारण मुख्यरूपेण विचारणीय हैं। जैसे-सब आचार्यों ने क्षत्रियकुंड को महाराज सिद्धार्थ का निवासस्थल माना है परन्तु आचार्य शीलांक ने उसे सिद्धार्थ का विहारस्थल (Hill Station) लिखा है? आचाराँग सूत्र, कल्पसूत्र आदि में नन्दीवर्धन को श्रमण भगवान महावीर का ज्येष्ठ भाई लिखा है जबकि आचार्य शीलांक ने नन्दीवर्धन को महावीर का छोटा भाई बताया है। भगवती सूत्र के अनुसार गोशालक द्वारा सर्वानुभूति और सुनक्षत्र अणगार पर तेजोलेश्या का प्रक्षेपण और समवसरण में मुनिद्वय का प्राणान्त होना बताया गया है, जबकि आचार्य शीलांक ने चउवन महापुरिस चरियम में गोशालक द्वारा प्रक्षिप्त तेजोलेश्या से किसी मुनि की मृत्यु का उल्लेख नहीं किया है। उन्होंने लिखा है कि सर्वानुभूति अणगार के साथ विवाद होने पर गोशालक ने उन पर तेजोलेश्या फेंकी। बदले में सर्वानुभूति ने भी तेजोलेश्या प्रकट की। दोनों तेजोलेश्याएं टकराईं। भगवान् महावीर ने तेजोलेश्याओं द्वारा होने वाले अनर्थ को रोकने के लिए शीतललेश्या प्रकट की। उसके प्रबल प्रभाव को नहीं सह सकने के कारण वह तेजोलेश्या गोशालक पर गिर कर उसे जलाने लगी। तेजोलेश्या की तीव्र ज्वालाओं १. तिलो. पं. ४/६७० २. अण्ष्णयां य गामाणुगामं गच्छमाणो कीलाणिमित्तभागओ णियभुत्तिपरिसंठियं कुंडपुरं णामनयरं। (चउपन्नमहापुरिसचरियं, पृ. २७०) ३. परलोयमइगतेसु जणणि-जणएसु' पणामिऊण णियकणिट्ठस्स भाउणो रजं ... (चउप्पन्नमहापुरिसचरियं, पृ. २७२) ( २८ ) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002071
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year1999
Total Pages954
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, Tirthankar, N000, & N999
File Size16 MB
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