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________________ द्विवेदी ने अपनी 'नाथ संप्रदाय' नामक पुस्तक में लिखा है : "चांदनाथ संभवतः वह प्रथम सिद्ध थे जिन्होंने गोरक्षमार्ग को स्वीकार किया था। इसी शाखा के नीमनाथी और पारसनाथी नेमिनाथ और पार्श्वनाथ नामक जैन तीर्थंकरों के अनुयायी जान पड़ते हैं। जैन साधना में योग का महत्त्वपूर्ण स्थान है। नेमिनाथ और पार्श्वनाथ निश्चय ही गोरक्षनाथ के पूर्ववर्ती थे। ऐतिहासिक मान्यताओं में मतभेद ___ “यहाँ यह प्रश्न उपस्थित किया जा सकता है कि जैन इतिहास का मूलाधार जब सबका एक है तो फिर विभिन्न आचार्यों के लिखने में मतभेद क्यों ? - वास्तविकता यह है कि जैन परम्परा का सम्पूर्ण श्रुत गुरु-शिष्य परम्परा से प्रायः मौखिक ही चलता रहा। एक गुरु के शिष्यों में भी मौखिक ज्ञान क्षयोपशम की न्यूनाधिकता के कारण विभिन्न प्रकार का दृष्टिगोचर होता है। एक की स्मृति में एक बात एक तरह से है तो दूसरे की स्मृति में वही बात दूसरी तरह से और तीसरे को संभव है उसका बिलकुल ही स्मरण न हो। अति सन्निकट काल के घटनाचक्र के सम्बन्ध में जब इस प्रकार की मतवैचित्र्य की स्थिति है तो प्राचीनकाल की ऐतिहासिक घटनाओं के सम्बन्ध में दीर्घकाल की अनेक दुष्कालियों के समय स्मरण, चिन्तन एवं परावर्तन के बराबर अवसर प्राप्त न होने की दशा में कतिपय मतभेदों का होना स्वाभाविक है। जैसा कि विमलसूरि ने पउम चरियं में कहा है: एवं परम्पराए परिहाणी पुव्व गंथ अत्थाणं । नाऊण कालभाव, न रुसियव्व बुहजणेण ॥ निकट भूत में हुए अनेक संतों, उनकी परम्पराओं एवं उनके जन्मकाल आदि के सम्बन्ध में बड़ा मतभेद दृष्टिगोचर होता है। उदाहरणस्वरूप कबीर को कोई हिन्दू मानते हैं तो कई मुस्लिम। उनके जन्मकाल, माता-पिता के नाम आदि के सम्बन्ध में भी आज मतैक्य दृष्टिगोचर नहीं होता। पूज्य धर्मदासजी महाराज जिनके नाम पर स्थानकवासी समाज में कितनी ही उपसंप्रदायें चल रही हैं, उनके माता-पिता, जन्मकाल और स्वर्गवास-तिथि के सम्बन्ध में आज मतभेद चल रहा है। ऐसी स्थिति में हजारों वर्ष पहले हुए तीर्थंकरों के विषय में मतभेद हो तो इसमें विशेष आश्चर्य की बात नहीं है। कालप्रभाव, स्मृतिभेद, दृष्टिभेद के अतिरिक्त लेखक और वाचक के दृष्टिदोष के कारण भी मान्यताओं में कुछ विभेद आ गये हैं, जो कालान्तर में ईसा की तीसरी शती के आसपास श्वेताम्बर-दिगम्बर परम्पराओं की मध्यवर्ती यापनीय नामक तीसरी परम्परा के भी जनक रहे हैं। पाठकों को इस मतभेद से खिन्न होने की अपेक्षा यह देख कर अधिक गौरवानुभव करना चाहिए कि तीर्थंकरों के माता-पिता, जन्मस्थान, च्यवन नक्षत्र, च्यवन स्थल, जन्म नक्षत्र, १. 'नाथ संप्रदाय' - हजारी प्रसाद द्विवेदी पृ. १९० ( २७ ) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002071
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year1999
Total Pages954
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, Tirthankar, N000, & N999
File Size16 MB
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