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________________ आचार्य यतिवृषभ ने तीर्थंकरों के नाम के आगे नाथ शब्द की तरह ईसर और सामी पदों का भी उल्लेख किया है। यथा :'रिसहेसरस्स भरहो, सगरो अजिएसरस्स पच्चक्ख' (ति. प. ४१२८३)। 'लक्खा पणप्पमाणा वासाणं धम्मसामिस्स ।' (ति. प. ४५९९)। इससे इतना तो सुनिश्चित एवं निर्विवाद रूप से कहा जा सकता है कि चौथी शताब्दी में यतिवृषभ के समय में तीर्थंकरों के नाम के साथ नाथ शब्द का प्रयोग लिखने-पढ़ने व बोलने में आने लगा था। जैन तीर्थंकरों के नाम के साथ लगे हुए नाथ शब्द की लोकप्रियता शनैः शनैः इतनी बढ़ी कि शैवमती योगी अपने नाम के साथ मत्स्येन्द्रनाथ, गौरखनाथ आदि रूप से नाथ शब्द जोड़ने लगे फलस्वरूप इस संप्रदाय का नाम ही 'नाथ संप्रदाय' के रूप में पहिचाना जाने लगा। इतर संप्रदाय के साधारण लोग जो सर्वथा आदिनाथ, अजितनाथ आदि तीर्थंकरों की महिमा और उनके इतिहास से अनभिज्ञ हैं, गोरखनाथ की परम्परा में नीमनाथी, पारसनाथी नाम देख कर भ्रान्ति में पड़ सकते हैं कि गोरखनाथ से नेमनाथ पारसनाथ हुए या नेमनाथ पारसनाथ से गोरखपंथी हुए। सही स्थिति यह है कि मत्स्येन्द्रनाथ जो नाथ संप्रदाय के मूल प्रवर्तक एवं आदि आचार्य माने जाते हैं, उनका समय ईसा की आठवीं शताब्दी माना गया है जबकि तीर्थंकर भगवान् नेमनाथ, पारसनाथ और जैन धर्मानुयायी हजारों वर्ष पहले के हैं। नेमनाथ पार्श्वनाथ से ८३ हजार वर्ष पूर्व हो चुके हैं। दोनों में बड़ा कालभेद है। अतः गोरखनाथ से नेमनाथ पारसनाथ या जैन धर्मानुयायियों के होने की तो संभावना ही नहीं हो सकती। ऐसी मिथ्या कल्पना विद्वानों के लिए किसी भी तरह विश्वसनीय नहीं हो सकती। हाँ नेमनाथ पारसनाथ से गोरखनाथ की संभावना की जा सकती है। पर विचारने पर वह भी ठीक नहीं बैठती क्योंकि भगवान् पार्श्वनाथ विक्रम संवत् से ७२५ वर्ष से भी अधिक पहले हो चुके हैं जबकि गोरखनाथ को विद्वानों ने बप्पा रावल का भी समकालीन माना है। हो सकता है कि भगवान् नेमनाथ के व्यापक अहिंसा प्रचार का जिसने कि पूरे यादव वंश का मोड़ बदल दिया था, नाथ परम्परा पर प्रभाव पड़ा हो और पार्श्वनाथ के कमठ प्रतिबोध की कथा से नाथ परम्परा के योगियों का मन प्रभावित हुआ हो और इस आधार से नीमनाथी, पारसनाथी परम्परा प्रचलित हुई हो। जैसा कि प्रसिद्ध इतिहासज्ञ हजारी प्रसाद १. हमारी अपनी धारणा यह है कि इसका उदय लगभग ८वीं शताब्दी के आसपास हुआ था। मत्स्येन्द्रनाथ इसके मूल प्रवर्तक थे। - हिन्दी की निर्गुण काव्य धारा और उसकी दार्शनिक पृष्ठ भूमि। पृ. ३२७ (२६) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002071
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year1999
Total Pages954
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, Tirthankar, N000, & N999
File Size16 MB
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