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तीर्थकर और नाथ संप्रदाय
तीर्थंकरों का उल्लेख जैन साहित्य के अतिरिक्त वेद, पुराण आदि वैदिक और त्रिपिटक आदि बौद्ध धर्म-ग्रन्थों में भी उपलब्ध होता है । परन्तु उनमें ऋषभ, संभव, सुपार्श्व, अरिष्टनेमि आदि रूप से ही उल्लेख मिलता है, कहीं भी नाथ पद से युक्त तीर्थंकरों के नाम उपलब्ध नहीं होते। समवायांग, आवश्यक और नंदीसूत्र में भी नाथ- पद के साथ नामों का उल्लेख नहीं मिलता। ऐसी स्थिति में सहज ही यह प्रश्न उत्पन्न होता है कि तीर्थंकरों के नाम के साथ 'नाथ' शब्द कब से और किस अर्थ में प्रयुक्त होने लगा ।
शब्दार्थ की दृष्टि से विचार करते हैं तो नाथ शब्द का अर्थ स्वामी या प्रभु होता है । आगम में वशीकृत - आत्मा के लिए भी नाथ शब्द का प्रयोग किया गया है । जैसे कि उत्तराध्ययन सूत्र में अनाथी मुनि के शब्दों में कहा गया है
खन्तो दन्तो निरारंभो, पव्वइओ अणगारियं ॥ तो हं नाहो जाओ, अप्पणो य परस्स य
॥
३४ ॥
(उ., अ. २०) ।
अर्थात् "जब मैं शान्त, दान्त और निरारम्भी रूप से प्रव्रजित हो गया, तब अपना और पर का नाथ हो गया।"
३५ ॥
प्रत्येक तीर्थंकर त्रिलोकस्वामी और उपरोक्त महान् गुणों से सम्पन्न होते हैं अतः उनके नाम के साथ 'नाथ' उपपद का लगाया जाना नितान्त उपयुक्त एवं उचित ही है । प्रभु, नाथ, देव एवं स्वामी आदि शब्द एकार्थक हैं अतः तीर्थंकर के नाम के साथ देव, नाथ अथवा स्वामी उपपद लगाया गया है।
सर्वप्रथम भगवती सूत्र में भगवान् महावीर का और आवश्यक सूत्र में अरिहन्तों का उत्कीर्तन करते हुए 'लोगनाहेणं', 'लोग नाहाणं' विशेषण से उन्हें लोकनाथ कहा है।
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टीकाकार ने 'नाथ' शब्द की एक दूसरी व्याख्या भी की है। 'योगक्षेम - कृन्नाथः ' अलभ्यलाभो योगः, लब्धस्य परिपालनं क्षेमः । इस दृष्टि से तीर्थंकर भव्य जीवों के लिए अलब्ध सम्यग्दर्शन आदि का लाभ और लब्ध सम्यग्दर्शन का परिपालन करवाते हैं अतः वे इस अपेक्षा से भी नाथ कहे जा सकते हैं।
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चौथी शताब्दी के आस-पास हुए दिगम्बर आचार्य यतिवृषभ ने अपने ग्रन्थ 'तिलोयपण्णत्ती' में अधोलिखित कतिपय स्थलों पर तीर्थंकरों के नाम के साथ 'नाथ' शब्द का प्रयोग किया है :–
'भरणी रिक्खम्मि संतिणाहो य।' ति. प. ४ । ५४१ । 'विमलस्स तीसलक्खा, अणंतणाहस्स पंचदसलक्खा ।'
( २५ )
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( ति. प. ४ । ५९९)
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