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________________ से भयभीत हो गोशालक भगवान् महावीर के चरणों में गिर पड़ा। प्रभु के चरणों की कृपा से उस पर आया हुआ तेजोलेश्या का उपसर्ग शान्त हो गया। गोशालक को अपने दुष्कृत्य पर पश्चाताप हुआ और अपने दुष्कृत्य की निन्दा करते हुए उसने शुभ- लेश्या प्राप्त की और मरकर अन्त में अच्युत स्वर्ग में देवरूप से उत्पन्न हुआ R उपरोक्त मन्तव्यों से प्रतीत होता है कि आचार्य शीलांक के समय में भी गोशालक द्वारा भगवान् के पास सर्वानुभूति और सुनक्षत्र मुनि पर तेजोलेश्या फेंकने के सम्बन्ध में विचार- विभेद था । आचार्य शीलांक जैसे शास्त्रज्ञ मुनि द्वारा परम्परागत मान्यता के विपरीत लिखने के पीछे कोई कारण अवश्य होना चाहिए। इतने बड़े विद्वान् यों ही बिना सोचे कुछ लिख डालें, इस पर विश्वास नहीं होता । यह विषय विद्वानों की गहन गवेषणा की अपेक्षा रखता है। तीर्थंकरकालीन प्रचार - नीति तीर्थंकरों के समय में देव, देवेन्द्र और नरेन्द्रों का पूर्णरूपेण सहयोग होते हुए भी जैन धर्म का देश-देशान्तरों में व्यापक प्रचार क्यों नहीं हुआ, तीर्थंकरकाल की प्रचार-नीति कैसी थी, जिससे कि भरत जैसे चक्रधर, श्रीकृष्ण जैसे शक्तिधर और मगधनरेश श्रेणिक जैसे भक्तिधरों के सत्ताकाल में भी देश में जैन धर्म का प्रचुर प्रचार नहीं हो सका । साधु-संत और शक्तिशाली भक्तों ने प्रचारक भेजकर तथा अधिकारियों ने राजाज्ञा प्रसारित कर अहिंसा एवं जैन धर्म का सर्वत्र व्यापक प्रचार क्यों नहीं किया, इस प्रकार के प्रश्न सहज ही प्रत्येक व्यक्ति के मस्तिष्क में उत्पन्न हो सकते हैं। तत्कालीन स्थिति का सम्यक् अवलोकन करने पर ज्ञात होता है कि तीर्थंकरों के मार्ग में प्रचार का मूल सम्यग्विचार और आचारनिष्ठा ही माना गया था। उनके उपदेश का मूल लक्ष्य हृदय - परिवर्तन रहता था । यही कारण है कि तीर्थंकर भगवान् ने अपने पास आये हुए श्रोताओं को भी सम्यग्दर्शन आदि मार्ग का ज्ञान कराया पर किसी को बलपूर्वक अथवा आग्रहपूर्वक यह नहीं कहा कि तुम्हें अमुक व्रत ग्रहण करना होगा । उपदेश श्रवण के पश्चात् जो भी इच्छापूर्वक १. अण्णया य भिक्खु सव्वाणभूईहिं समं विवाओ संजाओ । तओ विवायवसुप्पण्ण कीवाईसयेण य पक्खित्ता ताणोवरि तेउलेसा, तेहिंपि तस्स सतेउलेस त्ति । ताणं चं परोप्परं तेउलेसाणं संपलग्ग जुझं एत्थावसरम्भ य भयवया तस्सुवसमण, णिमित्त पेसिया सीयलेसा । तओ सीयलेसापहावमसहमाणा विवलाया तेउलेसा, मंदसाहियकिच्च व्व पयत्ता अहिद्दविउं गोसालयं णवरमसहमाणो तेयजलणप्पहावं समल्लीणो जयगुरुं । जय गुरुचलणप्पहावपणट्ठोवसग्गपसरो य संबुद्धो पयत्तो चिंतिउं हा ! दुट्ठ मे कयं जं भयवया सह समसीसिमारुहंतेण अच्चासायणा कया। (वही, पृ. ३०६-७ ) २. एवं च पइदिणं णिंदणाइयं कुणमाणो कालमासे कयपाणपरिच्चाओ समुप्पण्णो अच्चुए देवलोए त्ति । (वही, पृ. ३०७ ) ( २९ ) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002071
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year1999
Total Pages954
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, Tirthankar, N000, & N999
File Size16 MB
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