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________________ साधुधर्म अथवा श्रावकधर्म ग्रहण करने के लिए खड़ा होता उसे यही कहा जाता'यथा-सुखम्' अर्थात् जिसमें सुख हो उसमें प्रमाद मत करो। के भावना उत्पन्न करने के बाद क्या करना, इसका निर्णय श्रोता पर ही छोड़ दिया जाता। आज की तरह बल प्रयोग या आडम्बर से प्रचार नहीं किया जाता था। कारण कि प्रचार की अपेक्षा आचार की प्रधानता थी। अन्यथा चक्रवर्ती और वासुदेवों के राज्यकाल में अनार्य-खण्ड में भी जैन धर्म के प्रति व्यापक आदर हो जाता और लाखों ही नहीं करोड़ों मानव जैन धर्म के श्रद्धालु अनुयायी बन जाते एवं सर्वत्र वीतराग-वाणी का प्रचार एवं प्रसार हो जाता। तीर्थंकरों के समय के प्रचार को देखते हुए प्रतीत होता है कि उन्होंने ज्ञानपूर्वक विशुद्ध प्रचार को ही उपादेय मान रखा था। सत्ताबल, धनबल अथवा सेवा-शुश्रूषा से प्रसन्न कर, किसी को भय, प्रलोभन या प्रशंसा से चढ़ाकर बिना पाये (बुनियाद) के तैयार करना उचित नहीं माना जाता था। जैन साधु सार्वजनिक स्थान में ठहरते, बिना भेद-भाव के सब जातियों के अनिंद्यकुलों से भिक्षा ग्रहण करते और सबको उपदेश देते थे। धर्म, संप्रदाय या पथ-परिवर्तन कराने में खास रस नहीं लिया जाता था। बोध पाकर कोई स्वयं धर्म ग्रहण करना चाहता, उसे ही दीक्षित किया जाता। जैनाचार्यों अथवा शासकों द्वारा कोई बलात् धर्म-परिवर्तन का उदाहरण नहीं मिलेगा। उस समय स्थिति ऐसी थी कि समाज के शुभ वातावरण में अनायास ही लोग धर्मानुकूल जीवन जी सकते थे। संस्कारों का पाया इतना दृढ़ था कि अनार्य लोग भी उनके प्रभाव से प्रभावित हो जाते। अभयकुमार ने अनार्य देशस्थ अपने पिता के मित्र अनार्य नरेश के राजकुमार को धर्मप्रेमी बनाने के लिए धर्मोपकरण की भेंट भेजी और सेठ जिनदत्त ने अनार्यभूप को धर्मरत्न की ओर आकृष्ट कर भगवान् महावीर की सेवा में उपस्थित किया। इसी प्रकार मंत्री चित्त ने केशिश्रमण को श्वेताम्बिका नगरी ले जा कर नास्तिक नरेश प्रदेशी को आस्तिक एवं धर्मानुरागी बनाया। प्रचार का तरीका यह था कि किसी विशिष्ट पुरुष को ऐसा तैयार करना कि वह हजारों को धर्मनिष्ठ बना सके। उस समय किसी की धार्मिक साधना में बाधा पहुचाना या किसी को धर्मच्युत करना जघन्य कृत्य समझा जाता था। आज की स्थिति उस समय से भिन्न है। आज अनार्य देश में भी आर्यजन आते-जाते तथा रहते हैं एवं कई अनार्य लोग भारत की आर्यधरा में भी रहने लगे हैं। एक दूसरे का परस्पर प्रभाव पड़ता है। ऐसी स्थिति में आवश्यक है कि उनमें अहिंसा, सत्य एवं सदाचार का खुलकर प्रचार किया जाये। उन्हें खाद्या-खाद्य का स्वरूप ( ३० ) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002071
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year1999
Total Pages954
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, Tirthankar, N000, & N999
File Size16 MB
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