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समझाया जाये। अन्यथा बढ़ते हुए हिंसा और मांसाहार के युग में निर्बल मन वाले धार्मिक लोग विदेशियों से प्रभावित हो धर्मानुकूल व्यवहार से विमुख हो जावेंगे। प्रचार आवश्यक है पर वह अपनी संस्कृति के अनुरूप होना चाहिए। हमारी प्रचार-नीति आचार-प्रधान और ज्ञानपूर्वक हृदय-परिवर्तन की भूमिका पर ही आधारित होनी चाहिए। इसी से हम जिन-शासन का हित कर सकते हैं और यही तीर्थंकरकालीन संस्कृति के अनुरूप प्रचार का मार्ग हो सकता है।
आज के इतिहास लेखक
जैन इतिहास के इस प्रकार के प्रामाणिक आधार होने पर भी आधुनिक विद्वान उसको बिना देखे जैन धर्म और तीर्थंकरों के विषय में भ्रान्ति-पूर्ण लेख लिख डालते हैं, यह आश्चर्य एवं खेद की बात है। इतिहासज्ञ को प्रामाणिक ग्रन्थों
का अध्ययन कर जिस धर्म या संप्रदाय के विषय में लिखना हो प्रामाणिकता से लिखना चाहिए। सांप्रदायिक अभिनिवेश या बिना पूरे अध्ययन-मनन के सुनी-सुनाई बात पर लिख डालना उचित नहीं।
गोशालकं द्वारा महावीर का शिष्यत्व स्वीकार करना और आजीवक मत पर महावीर के सिद्धान्त का प्रभाव शास्त्रसिद्ध होने पर भी यह लिखना कि महावीर ने गोशालक से अचेलधर्म स्वीकार किया, कितनी बड़ी भूल है। आज भी कुछ विद्वान जैन धर्म को वैदिक मत की शाखा बताने की व्यर्थ चेष्टा करते हैं, यह उनकी गहरी भूल है। हम आशा ही नहीं पूर्ण विश्वास करते हैं कि हमारे विज्ञ इतिहास इस ओर विशेष सतर्क रहकर जैन धर्म जैसे भारत के प्रमुख धर्म का सही परिचय प्रस्तुत कर राष्ट्र को तत्विषयक अज्ञान से हटा आलोक में रखने का प्रयास करेंगे।
ग्रंथ परिचय
"जैन धर्म का मौलिक इतिहास' नाम का प्रस्तुत ग्रन्थ प्रथमानुयोग की प्राचीन आगमीय परम्परा के अनुसार लिखा गया है। इस तीर्थंकर-खंड में तीर्थंकरों के पूर्व-भव, देवगति का आयु, च्यवन, च्यवनकाल, जन्म, जन्मकाल, राज्याभिषेक, विवाह, वर्षीदान, प्रव्रज्या, तप, केवलज्ञान, तीर्थस्थापना, गणधर, प्रमुख आर्या, साधु-साध्वी आदि परिवारमान एवं किये हुए विशेष उपकार का परिचय दिया गया है। ऋषभदेव से महावीर तक चौबीसों तीर्थंकरों का परिचय आचाराँग, जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति, समवायांग, आवश्यक आदि सूत्र, आवश्यक नियुक्ति, आवश्यक चूर्णि, प्रवचन सारोद्धार, सत्तरिसय द्वार और दिगम्बर परम्परा के महापुराण, उत्तर पुराण, तिलोय पण्णत्ती आदि प्राचीन ग्रन्थों के आधार से लिखा गया है।
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