________________
मतभेद के स्थलों में त्रिषष्टि शलाका पुरुष चरित्र, आगमीय मत और सत्तरिसय प्रकरण को सामने रखकर शास्त्रसम्मत विचार को ही प्रमुख स्थान दिया है । भगवान् ऋषभदेव के प्रकरण में अत्यधिक अनुसन्धान अपेक्षित था। वह पहले तो अनेक कारणों से पूर्णतः संभव नहीं हो सका पर इस बार वह पर्याप्त रूपेण सुन्दर बन गया है। अनेक स्थलों पर परिवर्द्धन, परिमार्जन किये गये हैं।
ऐतिहासिक तथ्यों की गवेषणा के लिये जैन साहित्य के अतिरिक्त वैदिक और बौद्ध साहित्य से भी यथाशक्य सामग्री संकलन का लक्ष्य रखा है। गवेषणा में हमने किसी साहित्य की उपेक्षा नहीं की है।
मौलिक ग्रन्थों के अतिरिक्त आधुनिक लेखकों के साहित्य का भी पूरा उपयोग किया गया है। पार्श्वनाथ में श्री देवेन्द्र मुनि, जो सम्पादक - मंडल में प्रमुख हैं, के साहित्य का और भगवान् महावीर के प्रकरण में श्री विजयेन्द्र सूरि, श्री कल्याण विजयजी आदि के साहित्य का भी यथेष्ट उपयोग किया गया है। लिखते समय इस बात का पूरा-पूरा ध्यान रखा गया है कि कोई भी चीज शास्त्र के विपरीत नहीं जावे और निर्ग्रन्थ परम्परा के विरुद्ध न हो । कहीं भी साम्प्रदायिक अभिनिवेशवश कोई अप्रामाणिक बात नहीं आने पावे, इस बात का विशेष ध्यान रखा गया है। इस खण्ड में मुख्यतया तीर्थंकरों का ही परिचय है अतः इसे तीर्थंकर खण्ड कहा जा सकता है।
प्रस्तुत ग्रन्थ के परिशिष्ट में श्वेताम्बर एवं दिगम्बर परम्पराओं की मान्यतानुसार तीर्थंकरों का तुलनात्मक परिचय और आवश्यक टिप्पणी भी दिये हैं ।
संस्मरण
प्रस्तुत ग्रन्थ के लेखन, संकलन एवं सम्पादन कार्य में पं. शशिकान्तजी झा और गजसिंह जी राठौड़ का श्रमपूर्ण सहयोग भुलाया नहीं जा सकता । वैदिक . साहित्य के माध्यम से अलभ्य उपलब्धियाँ श्री राठौड़ के लगनपूर्ण अनवरत चिन्तन एवं गवेषण का ही प्रतिफल है। उनका इतिहास के लिए रात-दिन तन्मयता से चिन्तन सचमुच अनुकरणीय कहा जा सकता है। मेरे कार्य सहायक पं. मुनि श्री लक्ष्मीचन्द्रजी, सेवाव्रती मुनि लघु लक्ष्मीचन्द्रजी, श्री चौथमलजी प्रभृति का व्याख्यान आदि कार्य में और हीरा मुनि, शीतल मुनि आदि छोटे मुनियों का सेवा कार्य में अनवरत सहयोग मिलता रहा है। उन सबके सहयोग से ही कार्य सम्पन्न हो सका
है ।
प्रूफ संशोधन एवं प्रकाशन की समीचीन व्यवस्था में सम्यक्ज्ञान प्रचारक
( ३२ )
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org