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जैन धर्म का मौलिक इतिहास [श्रमणोपासक सोमिल देव ने तीसरी बार फिर कहा-"सोमिल ! तेरी यह प्रव्रज्या दुष्प्रव्रज्या
इस पर सोमिल ने अपना मौन तोड़ते हए देव से पूछा-"देवानप्रिय ! आप बतलाइये कि मेरी यह प्रव्रज्या दुष्प्रव्रज्या किस प्रकार है ?'
उत्तर में देव ने कहा- "सोमिल ! तुमने अर्हत् पार्श्व के समक्ष पाँच अणुव्रत, सात शिक्षावत, इस तरह बारह व्रत वाला श्रावकधर्म स्वीकार किया था। उनका तुमने त्याग कर दिया और दिशाप्रोक्षक तापस बन गये हो। यह तुम्हारी दुष्प्रव्रज्या है। मैंने बार-बार तुम्हें समझाया, फिर भी तुम नहीं समझे।"
सोमिल ने पूछा-"देव ! मेरी सुप्रव्रज्या कैसे हो सकती है ?"
"सोमिल ! यदि तुम पूर्ववत् श्रावक के बारह व्रत धारण करो तो तुम्हारी प्रव्रज्या सुप्रव्रज्या हो सकती है।" यह कहकर देव सोमिल को नमस्कार कर तिरोहित हो गया।
तदनन्तर सोमिल देव के कथनानुसार स्वत: ही पूर्ववत श्रावकधर्म स्वीकार कर बेला, तेला, चोला, अर्द्धमास, मास आदि की धोर तपश्चर्याओं के साथ श्रमरणोपासक-पर्याय का पालन करता हुना बहुत वर्षों तक विचरण करता रहा।
अन्त में १५ दिन की संलेखना से आत्मा को भावित करता हा पूर्वकृत दुष्कृत की आलोचना किये बिना आयुष्य पूर्ण कर वह शुक्र महाग्रह रूप से देव हया । कठोर तप और श्रमणोपासकधर्म के पालन के कारण इसे यह ऋद्धि
प्राप्त हुई है।
गौतम ने पुनः प्रश्न किया-"भगवन् ! यह शुक्रदेव प्रायुध्य पूर्ण होने पर कहाँ जायगा?"
भगवान महावीर ने कहा-"गौतम ! देवाय पूर्ण होने पर यह शुक्र नहाविदेह क्षेत्र में जन्म ग्रहण करेगा और वहाँ प्रवजित हो सकल कर्मों का क्षय कर निर्वाण प्राप्त करेगा।"
यहाँ पर सोमिल का काष्ठमुद्रा से मुख बाँध कर मौन रहना विचारणीय एतं शोध का विषय है । जैन दर्शन के अतिरिक्त अन्य दर्शनों में कहीं भी मुख बाँधने का विधान उपलब्ध नहीं होता । ऐसी स्थिति में निरयावलिका में सोमिल द्वारा काष्ठमुद्रा से मुह बाँधना प्रमाणित करता है कि प्राचीन समय में जनेतर
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