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________________ को जातिस्मरण] भ० श्री मल्लिनाथ हमारा अन्य कौन सहायक होगा ? कौन हमारा प्राधार होगा और कौन हमें सन्मार्ग से बच्चा सन्मार्ग में लगायगा ? अतः जिस प्रकार भाप प्राज से पहले के तीसरे नंब में हमारे धुराग्रणी, मेढ़ि अथवा मार्गदर्शक बनकर रहे, उसी प्रकार इस भव में भी आप ही धर्ममार्ग में प्रवृत्ति कराने वाले हमारे धुराग्रणी रहें, पथप्रदर्शक रहें । हे देवानुप्रिये ! हम भी भवभ्रमरण से भयभीत हैं, हम लोग भी आपके साथ प्रव्रजित, दीक्षित होंगे ।" छहों राजाओं की बात सुनकर भगवती मल्ली ने कहा- “यदि आप सब संसार के भय से उद्विग्न हैं और मेरे साथ प्रव्रजित होना चाहते हैं, तो अपने अपने घर जायँ और अपने अपने ज्येष्ठ पुत्र को राजसिंहासन पर श्रासीन कर एकएक सहस्र पुरुषों द्वारा उठाई जाने वाली शिबिकाओं में श्रारूढ़ हो मेरे पास लौट आयें ।" उन छहों राजाओं ने भगवती मल्ली की बात को स्वीकार किया । भगवती मल्ली उन छहों राजाओं को साथ लेकर महाराज कुम्भ के पास गईं । उन छहों राजाओं को महाराज कुम्भ के चरणों में झुका उनसे प्रणाम करवाया । २८१ महाराज कुम्भ ने उन छहों राजाओं का चार प्रकार के मनोज्ञ श्राहार, पुष्प, वस्त्र, गन्ध, माला आदि से सत्कार किया । तदनन्तर उन्हें विदा किया । वहां से विदा हो वे जितशत्रु श्रादि छहों राजा अपने अपने राज्यों की ओर प्रस्थित हुए और अपने अपने राजप्रासादों में आकर राजकार्य में संलग्न हो गये । तदनन्तर तीर्थंकर मल्ली भगवती ने मन में निश्चय कर लिया कि वे वर्ष समाप्त होने पर दीक्षा ग्रहण करेंगी । एक मल्ली भगवती के इस प्रकार का विचार करते ही सौधर्मेन्द्र देवराज श का आसन चलायमान हुआ । उसे अवधिज्ञान के उपयोग से विदित हुआ कि अर्हत मल्ली भगवती ने प्रव्रजित होने का विचार कर लिया है । त्रिकालवर्ती सौधर्मेन्द्रों का यह परम्परागत जीताचार रहा है कि वे प्रव्रजित होने के लिये तत्पर तीर्थंकरों के यहां अर्थात् तीर्थंकरों के माता-पिता के घर में तीन सौ अट्ठासी करोड़ अस्सी लाख स्वर्ण मुद्राएं दें प्रर्थात् प्रस्तुत करें।' इस प्रकार विचार कर शक ने वैश्रमरण देव (कुबेर ) को बुलाकर उसे कुम्भ राजा के राजप्रासाद में उपर्युक्त प्रमाण में स्वर्णमुद्राएं रखवाने की प्राज्ञा दी । कुबेर १ तिष्णेव य कोडिसया, इट्ठासीति च होंति कोडीनो । प्रसिति च सयसहस्सा, इंदा दलयंति रहाणं ॥ १ ॥ Jain Education International - शाताधर्मकथांग सूत्र, प्र०८ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002071
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year1999
Total Pages954
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, Tirthankar, N000, & N999
File Size16 MB
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