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जैन धर्म का मौलिक इतिहास
[भगवती मल्ली
ने शक्र की प्राज्ञा को शिरोधार्य कर जम्भक देवों को बलाया और उन्हे तीन सो अट्टयासी करोड़ अस्सी लाख स्वर्णमुद्राएं महाराज कुम्भ के राजप्रासाद में पहुंचाने की आज्ञा दी। जम्भक देवों ने तत्काल उत्कृष्ट देवगति से मिथिला के राजप्रासाद में आकर महाराज कुम्भ के भण्डारों को तीन सौ अट्टयासी करोड़ अस्सी लाख स्वर्णमुद्राओं से भर दिया।
मगवती मल्ली द्वारा वर्षादान इन्द्र की आज्ञा से जृम्भक देवों द्वारा महाराज कुम्भ के भण्डारों को स्वर्णमुद्राओं द्वारा पूरित कर दिये जाने के पश्चात् भगवती मल्ली ने वर्षीदान देना प्रारम्भ किया। निरन्तर एक वर्ष पर्यन्त वे प्रतिदिन प्रातःकाल से मध्याह्न काल पर्यन्त दो प्रहर तक बहुत से सनाथों, अनाथों, पान्थिकों, पथिकों, खप्परधारियों आदि को एक करोड़ आठ लाख स्वर्ण मुद्राएं दान करती रहीं।
__ महाराज कुम्भ ने उस समय मिथिला नगरी में अनेक स्थानों पर भोजनशालाएं खुलवा दीं। उन भोजनशालाओं में रसोइये प्रचुर मात्रा में चारों प्रकार के स्वादिष्ट अशन, पानादि बनाते और वहां आने वाले पन्थिकों, पथिकों, खप्परधारियों, भिक्षुकों, कंथाधारी भिक्षुकों, गृहस्थों आदि सभी प्रकार के लोगों को भोजन कराया जाता । अस्वस्थों, अपाहिजों आदि, वहां आने में असमर्थ लोगों को, उनके स्थान पर ले जाकर भोजन दिया जाता । चारों ओर लोग यत्र-तत्र भगवान् के वर्षीदान और महाराज कुम्भ द्वारा किये जाने वाले भोजनदान की महिमा गाने लगे ।
त्रिलोकपूज्य तीर्थंकरों के निष्क्रमण के समय निरन्तर एक वर्ष तक प्रतिदिन बार बार इस प्रकार की घोषणाएं की जाती हैं कि जिसे जो चाहिये वही मांगे । इन घोषणाओं के अनुसार जो भी जाता उसे, जो वह चाहता, वही दिया जाता।
इस प्रकार दान देते समय अन्त में भगवान मल्लिनाथ ने मन. में विचार किया कि प्रतिदिन १ करोड ८ लाख स्वर्ण मुद्राओं का दान करती हई एक वर्ष में तीन अरब अटूघासी करोड़, अस्सी लाख स्वर्ण मुद्राओं का दान अर्थात् तीर्थंकरों द्वारा अभिनिष्क्रमण के अवसर पर इतने ही परिमारा में दिये जाने वाले दान के सम्पन्न हो जाने पर वे प्रव्रज्या ग्रहण करेंगे।
प्रभु मल्लिनाथ के मन में इस प्रकार के विचार आते ही लोकान्तिक देवों के आसन प्रकम्पित हुए। अवधिज्ञान के उपयोग से उन्हें विदित हा कि वर्षीदान समाप्त कर जम्बूद्वीप के भरतक्षेत्र के १६वें तीर्थंकर प्रभु मल्ली प्रवजित होने का विचार कर रहे हैं। अभिनिष्क्रमण काल में तीर्थंकरों को संबोधित करने की त्रिकालवर्ती लोकान्तिक देवों की मर्यादा के अनुसार वे
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