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________________ निर्वाण महोत्सव ] भगवान् ऋषभदेव १३१ की श्राज्ञा से देवों ने तीन चिताओं और तीन शिविकाओं का निर्माण किया । शक्र ने क्षीरोदक से प्रभु के पार्थिव शरीर को और दूसरे देवों ने गरणधरों तथा प्रभु के शेष प्रन्तेवासियों के शरीरों को क्षीरोदक से स्नान करवाया । उन पर गोशीर्ष चन्दन का विलेपन किया गया । शक्र ने प्रभु के श्रीर देवों ने गणधरों तथा साधुओं के पार्थिव शरीरों को क्रमशः तीन प्रतीव सुन्दर शिविकाओं में रखा । "जय जय नन्दा, जय जय भद्दा" आदि जयघोषों और दिव्य देव वाद्यों की तुमुल ध्वनि के साथ इन्द्रों ने प्रभु की शिविका को और देवों ने गणधरों तथा साधुओं की दोनों पृथक्-पृथक् शिविकाओं को उठाया। तीनों चितानों के पास आकर एक चिता पर शक ने प्रभु के पार्थिव शरीर को रखा । देवों ने गरणधरों के पार्थिव शरीर उनके अन्तिम संस्कार के लिए निर्मित दूसरी चिता पर और साधुओं के शरीर तीसरी चिता पर रखे । शक्र की श्राज्ञा से अग्नि कुमारों ने क्रमशः तीनों चिताओं में अग्नि की विकुर्वणा की और वायुकुमार देवों ने अग्नि को प्रज्वलित किया । उस समय अग्निकुमारों और वायुकुमारों के नेत्र प्रनों से पूर्ण और मन शोक से बोझिल बने हुए थे । गोशीर्षचन्दन की काष्ठ से चुनी हुई उन चिताओं में देवों द्वारा कालागरु प्रादि अनेक प्रकार के सुगन्धित द्रव्य डाले गये । प्रभु के श्रीर उनके प्रन्तेवासियों के पार्थिव शरीरों का अग्नि-संस्कार हो जाने पर शक की प्राज्ञा से मेघकुमार देवों ने क्षीरोदक से उन तीनों चिताओं को ठंडा किया। सभी देवेन्द्रों ने अपनी-अपनी मर्यादा के अनुसार प्रभु की डाठों श्रौर दांतों को तथा शेष देवों ने प्रभु की अस्थियों को ग्रहण किया । तदुपरान्त देवराज शक ने भवनपति, वारणव्यन्तर, ज्योतिष्क श्रीर वैमानिक देवों को सम्बोधित करते हुए कहा - "हे देवानुप्रियो ! शीघ्रता से सर्वरत्नमय विशाल प्रालयों (स्थान) वाले तीन चैत्य- स्तूपों का निर्माण करो । उनमें से एक तो तीर्थंकर प्रभु ऋषभदेव की चिता पर दूसरा गरणधरों की चिता पर और तीसरा उन विमुक्त अणगारों की चिता के स्थान पर हो ।" उन चार प्रकार के देवों ने क्रमशः प्रभु की चिता पर, गरणधरों की चिता पर और अरणगारों की चिता पर तीन चैत्यस्तूप का निर्माण किया । आवश्यक निर्युक्ति में उन देवनिर्मित और श्रावश्यक मलय में भरत निर्मित चैत्यस्तूपों के सम्बन्ध में जो उल्लेख है, वह इस प्रकार है : मडयं मयस्स देहो, तं मरुदेवीए पढम सिद्धो ति । देवहि पुरा महियं, झावरणया अग्गिसक्कारो य ॥ ६० ॥ सो जिरणदेहाई, देवेहिं कतो चितासु थूभा य । सद्दो य रुष्णसद्दो, लोगो वि ततो तहाय कतो ॥ ६१ ॥ तथा भगवद्देहादिदग्धस्थानेषु भरतेन स्तूपा कृता, ततो लोकेऽपि तत भारभ्य मृतक दाह स्थानेषु स्तूपा प्रवर्तन्ते । श्रावश्यक मलय ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002071
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year1999
Total Pages954
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, Tirthankar, N000, & N999
File Size16 MB
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