________________
१३२
जन धर्म का मौलिक इतिहास
[जनेतर साहित्य
भ० ऋषभदेव, उनके गणधरों और अन्तेवासी साधुओं की तीन चिताओं पर पृथक-पृथक् तीन चैत्यस्तूपों का निर्माण करने के पश्चात् सभी देवेन्द्र अपने देव-देवी परिवार के साथ नन्दीश्वर द्वीप में गये । वहां उन्होंने भगवान् ऋषभदेव का अष्टाह्निक निर्वाण महोत्सव मनाया और अपने-अपने स्थान को लौट गये।'
वैदिक परम्परा के साहित्य में माघ कृष्णा चतुर्दशी के दिन आदिदेव का शिवलिंग के रूप में उद्भव होना माना गया है। भगवान आदिनाथ के शिव-पद प्राप्ति का इससे साम्य प्रतीत होता है । यह सम्भव है कि भगवान् ऋषभदेव की निषद्या (चिता स्थल) पर जो स्तूप का निर्माण किया गया वही आगे चल कर स्तूपाकार चिह्न शिवलिंग के रूप में लोक में प्रचलित हो गया हो।
जनेतर साहित्य में ऋषभदेव जैन परम्परा की तरह वैदिक परम्परा के साहित्य में भी ऋषभदेव का विस्तृत परिचय उपलब्ध होता है । बौद्ध साहित्य में भी ऋषभ का उल्लेख मिलता है । पुराणों में ऋषभ की वंश-परम्परा का परिचय इस प्रकार मिलता है :--
"ब्रह्माजी ने अपने से उत्पन्न अपने ही स्वरूप स्वायंभव को प्रथम मन बनाया । स्वायंभुव मनु से प्रियव्रत और प्रियव्रत से आग्नीध्र आदि दस पुत्र हुए । आग्नीध्र से नाभि और नाभि से ऋषभ हुए।
ऋषभदेव का परिचय प्रस्तुत करते हुए कहा गया है कि महात्मा नाभि की प्रिया मरुदेवी की कुक्षि से अतिशय कान्तिमान् ऋषभ नामक पुत्र का जन्म हुआ । महाभाग पृथिवीपति ऋषभदेव ने धर्मपूर्वक राज्यशासन तथा विविध यज्ञों का अनुष्ठान किया और अपने वीर पुत्र भरत को
१ जंबूद्वीप प्रज्ञप्ति और कल्प सूत्र, १६६ सू० २ ईशान संहिता । (क) माधे कृष्ण चतुर्दश्यामादिदेवो महानिशि ।
शिवलिंगतयोद्भूतः, कोटिसूर्य-समप्रभः ।।
तत्कालव्यापिनी ग्राह्या, शिवरात्रिव्रते तिथिः । (ख) माघमासस्य शेषे या, प्रथमे फाल्गुनस्य च ।
कृष्णा चतुर्दशी सा तु, शिवरात्रिः प्रकीर्तिता ॥ ३ विष्णु पुराण, अंश २ ० १॥ श्लो. ७. १६, २७
[ईशान संहिता]
[कालमाधवीय नागरखण्ड]
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org