________________
में ऋषभदेव] भगवान् ऋषभदेव
१३३ राज्याधिकार सौंपकर तपस्या के लिये पुलहाश्रम की ओर प्रस्थान किया। जबसे ऋषभदेव ने अपना राज्य भरत को दिया तबसे यह हिमवर्ष लोक में भारतवर्ष के नाम से प्रसिद्ध हुआ।"
श्रीमद्भागवत में ऋषभदेव को यज्ञपुरुष विष्ण का अंशावतार माना गया है । उसके अनुसार भगवान् नाभि का प्रेम-सम्पादन करने के लिये महारानी मरुदेवी के गर्भ से संन्यासी वातरशना-श्रमणों के धर्म को प्रकट करने के लिये शुद्ध सत्वमय विग्रह से प्रकट हुए । यथा :
"भगवान परमर्षिभिः प्रसादितो नाभेः प्रियचिकीर्षया तदवरोधायने मरुदेव्यां, धर्मान्दर्शयितुकामो वातरशनानां श्रमणानामृषीणामूर्ध्वमन्थिनां शुक्लया तन्वावततार ।" "ऋषभदेव के शरीर में जन्म से ही वन, अंकुश आदि विष्ण के चिह्न थे। उनके सुन्दर और सुडौल शरीर, विपुल कीर्ति, तेज, बल, ऐश्वर्य, यश, पराक्रम और शूरवीरता प्रादि गुणों के कारण महाराज नाभि ने उनका नाम ऋषभ (श्रेष्ठ) रखा।" श्रीमद्भागवत में ऋषभदेव को साक्षात् ईश्वर भी कहा है । यथा :"भगवान् ऋषभदेव परम स्वतन्त्र होने के कारण स्वयं सर्वदा ही सब तरह की अनर्थ परम्परा से रहित, केवल प्रानन्दानुभव-स्वरूप और साक्षात् ईश्वर ही थे। प्रज्ञानियों के समान कर्म करते हुए काल के अनुसार प्राप्त धर्म का आचरण करके उसका तत्त्व न जानने वाले लोगों को उन्होंने सत्य धर्म की शिक्षा दी।" ।
भागवत में इन्द्र द्वारा दी गई जयन्ती कन्या से ऋषभ का पाणिग्रहण और उसके गर्भ से अपने समान सौ पुत्र उत्पन्न होने का उल्लेख है ।
ब्रह्मावर्त पुराण में लिखा है कि ऋषभ ने अपने पुत्रों को अध्यात्मज्ञान की शिक्षा दी पौर फिर स्वयं ने प्रवधूतवृत्ति स्वीकार कर ली। उनके उपदेश का सार इस प्रकार है: १ विष्णु पुराण, २।१।२८ पौर २६ २ विष्णु पुराण, २॥१॥३२ ३ श्रीमदभागवत, ५३२० ४ श्रीमद्भागवत, ५२४२ ५ श्रीमद्भागवत, ५।४।१४ ६ श्रीमद्भागवत, ५४।८
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org