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जैन धर्म का मौलिक इतिहास [नेतर साहित्य "मेरे इस अवतार-शरीर का रहस्य साधारण जनों के लिये बद्धिगम्य नहीं है। शुद्ध सत्व ही मेरा हृदय है और उसी में धर्म की स्थिति है। मैंने अधर्म को अपने से बहुत दूर पीछे ढकेल दिया है, इसलिये सत्पुरुष मुझे ऋषभ कहते हैं। पुत्रो! तुम सम्पूर्ण चराचर भूतों को मेरा ही शरीर समझ कर शुद्ध बुद्धि से पद-पद पर उनकी सेवा करो, यही मेरी सच्ची पूजा है।"
"ऋषभदेव की अपरिग्रहवृत्ति का भागवत में निम्न रूप से उल्लेख मिलता है :
"ऋषभदेव ने पृथ्वी का पालन करने के लिए भरत को राज्यगद्दी पर बिठाया और स्वयं उपशमशील, निवृत्ति-परायण महामुनियों के भक्तिज्ञान और वैराग्य रूप परमहंसोचित धर्म की शिक्षा देने के लिये बिलकुल विरक्त हो गये । केवल शरीर मात्र का परिग्रह रखा और सब कुछ घर पर रहते ही छोड़ दिया।
ऋषभदेव के तप की पराकाष्ठा और उनकी नग्नचर्या का परिचय इस प्रकार प्रस्तुत किया गया है :
"वे तपस्या के कारण सूख कर कांटा हो गये थे और उनके शरीर की शिराएं-धमनियां दिखाई देने लगीं । अन्त में अपने मुख में एक पत्थर की बटिया रख कर उन्होंने नग्नावस्था में महाप्रस्थान किया।" भागवतकार के शब्दों में ऋषभ-चरित्र की महिमा इस प्रकार है :"राजन् ! इस प्रकार सम्पूर्ण वेद, लोक, देवता, ब्राह्मण और गौत्रों के परमगुरु भगवान् ऋषभदेव का विशुद्ध चरित्र मैंने तुम्हें सुनाया है।" "यह मनुष्य के समस्त पापों को हरने वाला है। जो मनुष्य इस परम मंगलमय पवित्र चरित्र को एकाग्रचित्त से श्रद्धापूर्वक निरन्तर सुनते या सुनाते हैं, उन दोनों की ही भगवान् वासुदेव में अनन्य भक्ति हो जाती है।" "निरन्तर विषय-भोगों की अभिलाषा करने के कारण अपने वास्तविक श्रेय से चिरकाल तक बेसुध बने हुए लोगों को जिन्होंने करुणावश निर्भय
१.श्रीमद्भागवत, ५५५१६ २ श्रीमदभागवत, ५।५।२६ ३ श्रीमद्भागवत, ५।५।२८ ४ श्रीमद्भागवत, १६७ ५ श्रीमद् भा० ५१६४१६
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