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________________ में ऋषभदेव] भगवान् ऋषभदेव १३५ आत्मालोक का उपदेश दिया और जो स्वयं निरन्तर अनभव होने वाले आत्मस्वरूप की प्राप्ति से सब प्रकार की तृष्णानों से मुक्त थे, उन • भगवान् ऋषभदेव को नमस्कार है।" शिवपुराण में शिव का आदि तीर्थंकर ऋषभदेव के रूप में अवतार लेने का उल्लेख है ।२ ऋग्वेद में भगवान ऋषभ को पूर्वज्ञान का प्रतिपादक और दुःखों का नाश करने वाला बतलाते हुए कहा है : “जैसे जल से भरा हुअा मेघ वर्षा का मुख्य स्रोत है. जो पृथ्वी की प्यास को बुझा देता है, उसी प्रकार पूर्वज्ञान के प्रतिपादक वृषभ (ऋषभ) महान् हैं।" बौद्ध साहित्य में लिखा है :"भारत के आदि सम्राटों में नाभिपूत्र ऋषभ और ऋषभपूत्र भरत की गणना की गई है। उन्होंने हेमवंत गिरि हिमालय पर सिद्धि प्राप्त की। वे व्रतपालन में दढ़ थे । वे ही निर्ग्रन्थ, तीर्थंकर ऋषभ जैनों के प्राप्तदेव थे।" धम्मपद में ऋषभ को सर्वश्रेष्ठ वीर कहा है । ऋषभदेव के समय का उल्लेख करते हए कुछ इतिहासज्ञों ने निम्न प्रकार से उल्लेख किया है : श्री रामधारी सिंह 'दिनकर' का कथन है :"मोहनजोदड़ो की खदाई में योग के प्रमाण मिले हैं और जैन मार्ग के आदि तीर्थकर जो श्री ऋषभदेव थे, जिनके साथ योग और वैराग्य की परम्परा उसी प्रकार लिपटी हुई है, जैसे शक्ति कालान्तर में शिव के साथ समन्वित हो गई । इस दृष्टि से कई जैन विद्वानों का यह मानना अयुक्तियुक्त नहीं है कि ऋषभदेव वेदोल्लिखित होने पर भी वेदपूर्व हैं ।” १ श्रीमद् भा० ५।६।१६ २ शिघ पु० ४१४७१४७ ३ प्रजापतेः सुतोनाभिः, तस्यापि सुतमुच्यते । नाभिनो ऋषभपुत्रो वै, सिद्धकर्म-दृढ़व्रतः ।। तस्यापि मणिचरो यक्षः, सिद्धो हेमवते गिरी । ऋषभस्य भरतः पुत्रः । आर्य मंजु श्री मूल श्लो० ३६०-६१-६२ ४ उसमं पवरं वीरं । धम्मपद ४२२ ५ प्राजकल, मार्च १९६२, पृ० ८ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002071
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year1999
Total Pages954
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, Tirthankar, N000, & N999
File Size16 MB
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