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________________ २७० जैन धर्म का नौलिक इतिहास [कुरुराज अदीनशत्रु का अनुराग अपने स्वामी की आज्ञा सुनकर दूत बड़ा प्रमुदित हुआ । उसने साष्टांग प्रणाम करते हुए महाराज शंख की आज्ञा को शिरोधार्य किया और अपने साथ कुछ सैनिक, कतिपय अनुचर और पर्याप्त पाथेय ले कर वह मिथिला की ओर प्रस्थित हुआ। कुरुराज प्रवीनशत्रु का अनुराग भगवती मल्ली के अनुपम सौन्दर्य की सौरभ फैलते-फैलते कुरु देश तक भी पहुंच गई। उन दिनों कुरु जनपद पर महाराजा अदीनशत्रु का शासन था । वे कुरु जनपद की राजधानी हस्तिनापुर नगर में रहते थे। एक दिन भगवती मल्ली के कनिष्ठ भाई मल्लदिन्न कुमार ने अपने प्रमर्द वन में चित्रकारों द्वारा चित्रसभा की रचना करवाई। जब राजकुमार चित्रसभा देखने गये तो वहां एक चित्र को देख कर वे स्तम्भित हो गये । वस्तुस्थिति यह थी कि एक चित्रकार ने भगवती मल्ली के पैर का अंगुष्ठ किसी समय देख लिया था। उसी के आधार पर उस चित्रकला-विशारद ने अपनी योग्यता से अंगूठे के आधार पर मल्ली का पूरा चित्र वहां चित्रसभा में चित्रित कर दिया था। मल्लदिन्न कुमार ने जब उस चित्र को देखा तो यह सोच कर कि यह मल्ली विदेह राजकन्या ही यहां खड़ी हुई हैं, वे लज्जित हो गये । ज्येष्ठ भगिनी के संकोच से वे पीछे की ओर हट गये । जब उन्हें धाई मां से यह ज्ञात हुआ कि यह मल्ली नहीं, किन्तु चित्रकार द्वारा प्रालिखित उनका चित्र है तो वे बड़े ऋद्ध हुए और चित्रकार को उन्होंने प्राणदण्ड की आज्ञा दे दी । प्रजा और चित्रकारमण्डल की प्रार्थना पर उसे अंगुष्ठ-छेदन का दण्ड दे कर निर्वासित कर दिया। वह चित्रकार कुरु नरेश के पास पहुंचा और उन्हें भगवती मल्ली का चित्र भेंट किया । चित्रपट को देख और मल्लिकुमारी के रूप की प्रशंसा सुन कर कुरुराज अदीनशत्रु भी मल्लिकुमारी पर मुग्ध हो गये । उन्होंने तत्काल अपने दूत को बुला कर आज्ञा दी-"देवानुप्रिय ! तुम आज ही मिथिला की ओर प्रस्थान करो और मिथिलाधिपति महाराज कुम्भ को मेरा यह सन्देश सुनाप्रो-कुरुराज अदीनशत्रु आपकी पुत्री विदेह राजकन्या मल्लिकुमारी को अपनी पट्टमहिषी बनाने के लिये व्यग्र हैं । वे मल्लिकुमारी को प्राप्त करने के लिये अपना सम्पूर्ण कुरु जनपद का राज्य भी देने को समुद्यत हैं।" अपने स्वामी की आज्ञा को शिरोधार्य कर कुरुराज का दूत भी तत्काल आवश्यक पाथेय, अनुचर और कतिपय सैनिकों को साथ ले मिथिला की ओर प्रस्थित हुआ। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002071
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year1999
Total Pages954
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, Tirthankar, N000, & N999
File Size16 MB
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