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________________ महाराजा शंख का अनुराग] भ० श्री मल्लिनाथ २६९ मेरा यह संदेश कहो कि मैं उनकी पुत्री मल्लिकुमारी का अपनी भार्या के रूप में वरण करना चाहता हूं।" अपने स्वामी की आज्ञा को शिरोधार्य कर महाराजा रुप्पी का वह दूत कतिपय सैनिकों, अनचरों और पाथेयादि को अपने साथ ले मिथिला की ओर तत्काल प्रस्थित हुआ। काशी जनपद के महाराजा शंख का अनुराग भगवती मल्ली के अलौकिक सौन्दर्य एवं अनुपम गरणों की ख्याति काशी नरेश के पास भी पहुंची। उन दिनों काशी जनपद पर महाराजा शंख का राज्य था। दे काशी जनपद की राजधानी बनारस में रहते थे। भगवती मल्ली के कानों के अरहन्नक श्रावक द्वारा महाराज कुम्भ कों भेंट किये गये कुण्डल युगल में से एक दिन एक कुण्डल की संधि पृथक हो गई। मिथिला के स्वर्णकारों को वह कुण्डल सन्धि जोड़ने के लिए दिया गया, परन्तु मिथिला के स्वर्णकारों में से कोई भी स्वर्णकार उस कुण्डल की सन्धि को नहीं जोड़ सका । इससे क्रुद्ध हो महाराज कुम्भ ने उन स्वर्णकारों को अपने राज्य विदेह जनपद की सीमा से निर्वासित कर दिया। महाराज कुम्भ द्वारा विदेह जनपद से निष्कासित कर दिये जाने पर व स्वर्णकार काशी नरेश शंख के पास पहुंचे और उन्होंने उनकी छत्रछाया में सुख से रहने की इच्छा अभिव्यक्त की। काशीपति ने उन्हें मिथिला के राज्य से निर्वासित करने का कारण पूछा और स्वर्णकारों द्वारा अपने निष्कासन का उपर्युक्त कारण बताये जाने पर महाराज कुम्भ की पुत्री मल्लिकुमारी के सौन्दर्य के सम्बन्ध में काशीराज ने स्वर्णकारों से जानकारी चाही । स्वर्णकारों ने उपयुक्त अवसर देख कर कह डाला-"महाराज ! कोई देवकन्या भी मल्ली जैसी सुन्दर नहीं होगी, वह अनुपम, उत्कृष्टतम और अलौकिक कान्तिवाली हैं। स्वर्णकारों के मुख से विदेह राजवर कन्या मल्लिकूमारी के अलौकिक सौन्दर्य की बात सुन कर काशी नपति भी भगवती मल्ली के सौन्दर्य पर मुग्ध हो गया। उसने तत्काल अपने प्रमुख दूत को बुला कर आदेश दिया-"देवानुप्रिय ! तुम आज ही मिथिला की ओर प्रस्थान करो और महाराज कुम्भ के पास जा कर उन्हें मेरा यह संदेश सुनायो-काशी जनपद के अधीश्वर महाराजाधिराज शंख आपकी पुत्री विदेह राजवर कन्या मल्लिकूमारी को अपनी पटट महिषी बनाने के लिये समुत्सुक हैं । मल्लिकुमारी को प्राप्त करने के लिये वे अपना विशाल राज्य भी देने को समुद्यत हैं।" Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002071
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year1999
Total Pages954
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, Tirthankar, N000, & N999
File Size16 MB
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