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जैन धर्म का मौलिक इतिहास
परिव्राजक मत का प्रारम्भ
"श्रमरण निरम्बर और शुक्लाम्बर होते हैं, जो स्थविरकल्पी हैं वे निर्मल मनोवृत्ति के प्रतीक श्वेत वस्त्र धारण करते हैं, पर मैं कषाय से कलुषित हूं, अतः मैं काषाय वस्त्र-गेरुए वस्त्र धारण करूगा ।'' "पाप-भीरु श्रमण जीवाकूल समझ कर सचित्त जल आदि का प्रारंभ नहीं करता किन्तु मैं परिमित जल का स्नान-पानादि में उपयोग करूंगा।"
इस प्रकार परिव्राजक वेष की कल्पना कर मरीचि भगवान के साथ उसी वेष से ग्राम-नगर आदि में विचरने लगा।
मरीचि के पास आकर बहुत से लोग धर्म की पृच्छा करते, वह उन सबको क्षान्ति आदि दशविध श्रमण-धर्म की शिक्षा देता और भगवान के चरणों में शिष्य होने को भेज देता।
किसी समय भरत महाराज ने भगवान के समक्ष प्रश्न किया-"प्रभो ! आपकी इस सभा में कोई ऐसा भी जीव है जो भरत क्षेत्र में, आपके समान इस चौबीसी में तीर्थंकर होगा?''3
समाधान करते हुए भगवान् ने फरमाया- "भरत ! यह स्वाध्यायध्यान में रत तुम्हारा पुत्र मरीचि, जो प्रथम परिव्राजक है, आगे इसी अवसर्पिणी में महावीर नाम का चौबीसवां तीर्थकर होगा। तीर्थकर होने से पहले यह प्रथम वासुदेव और मूका नगरी में चक्रवर्ती भी होगा।"
भगवान् का निर्णय सुनकर सम्राट भरत अत्यधिक प्रसन्न हए और मरीचि के पास जाकर उसका अभिवादन करते हुए बोले-"मरीचि ! तुम तीर्थंकर बनोगे, इसलिये मैं तुम्हारा अभिवादन करता हूं। मरीचि ! तेरी इस प्रत्रज्या को एवं वर्तमान जन्म को वंदन नहीं करता हूं, किन्तु तुम जो भावी तीर्थकर बनोगे, इसलिये मैं वंदन करता हूं।"
भरत की बात सुनकर मरीचि बहत ही प्रसन्न हया और तीन बार प्रास्फोटन करके बोला ..."अहो मैं प्रथम वासुदेव और मका नगरी में चक्रवर्ती वन गा, और इसी अवमपिरागी काल में अन्तिम तीर्थकर भी, कितनी बड़ी ऋद्धि ? फिर मेग कुल कितना ऊंचा ? मेरे पिता प्रथम सम्राट चक्रवर्ती, दादा
' आवश्यक नियुक्ति गाथा ३५७ "
, ३५८ , प्रा. नि गाथा ३६७ ।
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