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चक्रवर्ती भरत
परिव्राजक मत का प्रारम्भ
आवश्यक नियुक्ति प्रादि श्वेताम्बर ग्रन्थों के अनुसार भगवान् की देशना सुन कर और समवसरण की अद्भुत महिमा देख कर सम्राट् भरत का पुत्र मरीचि भी प्रभु के चरणों में दीक्षित हो गया तथा तप व संयम की विधिवत् आराधना करते हुए उसने एकादश अंगों का अध्ययन भी किया। पर सुकुमारता के कारण एक बार ग्रीष्मकाल के भीषण ताप और प्रस्नान परीषह से पीड़ित हो कर वह साधना के कंटकाकीर्ण मार्ग से विचलित हो गया ।'
( परिव्राजक मत का प्रारम्भ ]
वह मन ही मन सोचने लगा- " मेरु गिरि के समान संयम के इस गुरुतर भार को मैं घड़ी भर भी वहन नहीं कर सकता, क्योंकि संयम योग्य धृति आदि गुणों का मुझ में प्रभाव है, तो मुझे क्या करना चाहिये ?"
इस प्रकार विचार करते हुए उसे बुद्धि उत्पन्न हुई कि व्रत-पर्याय में आकर फिर घर लौट जाना तो उचित नहीं, सब लोग उसे कायर कहेंगे और यदि साधु रूप में रह कर विधिवत् संयम का निर्दोष पालन नहीं करता हूं, तो आत्म-वंचना होगी । अतः अपनी स्थिति के अनुसार नवीन वेश धारण कर विचरना चाहिये । श्रमरण-धर्म से उसने निम्न भेद की कल्पना की :"जिनेन्द्र मार्ग के श्रमरण मन, वचन और काया के अशुभ व्यापार रूप दंड से मुक्त, जितेन्द्रिय होते हैं । पर मैं मन, वाणी और काया से प्रगुप्तग्रजितेन्द्रिय हूं । इसलिये मुझे प्रतीक रूप से अपना त्रिदंड रखना चाहिये । २
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" श्रमरण सर्वथा प्राणातिपात विरमरण महाव्रत के धारक और सर्वथा हिंसा के त्यागी होने से मु ंडित होते हैं, पर मैं पूर्ण हिंसा का त्यागी नहीं हूं। मैं स्थूल हिंसा से निवृत्ति करूंगा और शिखा सहित क्षुर मुंडन कराऊंगा ।" 3
क) प्रा० भा० गा० ३७ । (ख) प्राव० नि० गा० ३५० ३५१
२ श्रावश्यक नियुक्ति गाथा ३५३
" श्रमरण धन- कंचन रहित एवं शील की सौरभ वाले होते हैं किन्तु मैं परिग्रहधारी और शील की सुगन्ध से रहित हूं । अतः मैं चन्दन आदि का लेप करूंगा ।" "
" श्रमण निर्मोही होने से छत्र नहीं रखते, पर मैं मोह ममता सहित हूं, अतः छत्र धारण करूंगा और उपानत् एवं खड़ाऊ भी पहनूंगा । "५
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