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जैन धर्म का मौलिक इतिहास
[भरत का स्वरूप-दर्शन
भरत का स्वरूप-दर्शन सम्यग्दर्शन के प्रकाश से भरत का अन्तर्मन प्रकाशित था । दीर्घकाल तक साम्राज्य-लीला में संलग्न रह कर भी वे उसमें लिप्त और स्वरूपदर्शन के लिए लालायित थे।
भरत एक दिन वस्त्रालंकारों से विभूषित होकर अपने शीशमहल (आदर्शभवन) में गये। वहां छत, भित्तियों और प्रांगन के शीशों में उनका सौन्दर्य शतमुखी हो कर प्रतिबिम्बित हो रहा था। प्रांगन में प्रतिबिम्बित उनकी छवि ऐसी सुशोभित हो रही थी, मानो क्षीरसागर में राजहंस विचरण कर रहा हो । महाराज भरत अपनी उस छटा को देखकर स्वयं उस पर विस्मित एवं मुग्ध से थे । अपनी अंगुलियों की शोभा को निहारते हुए उन्होंने देखा कि प्रकाशमान अंगलियों के बीच एक अंगुली शोभाविहीन है, सनी है, क्योंकि उसमें पहनी हई अंगूठी कही गिर पड़ी है। "देखें, इन दूसरो अंगूठियों को उतार देने पर ये अंगुलियां कैसी लगती हैं।" इस प्रकार विचार करते हुए उन्होंने एक-एक कर के अपने सारे आभूषण उतार दिये । प्राभूषणों को उतार देने के कारण शरीर का कृत्रिम सौन्दर्य विलुप्त हो गया । उन्हें अपना शरीर कमल रहित सरोवर के समान शोभाविहीन प्रतीत हुआ।
भरत के चिन्तन का मोड़ बदला, उन्होंने सोचा-"शरीर का यह सौन्दर्य मेरा अपना नहीं है, यह तो कृत्रिम है, वस्त्राभूषणों से ही यह सुन्दर प्रतीत होता है । क्षण भर पहले जो देह दमक रही थी, वह आभूषणों के अभाव में श्रीहीन हो गई है।"
उन्हें पहली बार यह अनुभव हुमा-भौतिक अलंकारों से लदी हुई मुन्दरता कितनी मारहीन है, कितनी भ्रामक है । इसके व्यामोह में फंस कर मानव अपने शुद्ध स्वरूप को भूल जाता है। वास्तविक सौन्दर्य की अवस्थिति तो "स्व" में है, “पर” में नहीं। वस्तुत: "स्व" की ओर अधिक ध्यान न दे कर जो मैं आज तक "पर" शरीरादि में ही तत्परता दिखाता रहा, यह मेरी भयंकर
मूल थी।"
धीरे-धीरे चक्रवर्ती भरत के चिन्तन का प्रवाह सम, संवेग, और निर्वेद की भूमिका पर पहुंचा और अपूर्वकरण में प्रविष्ट हो उन्होंने ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, मोहनीय एवं अन्तराय-इन चार घाति कर्मों का क्षय कर केवलज्ञान और केवलदर्शन प्राप्त कर लिया।'
__ वे प्रभु ऋषभदेव के चरणचिह्नों पर चल पड़े और अन्त में शुद्ध, बुद्ध व मुक्त हो गये। १ प्रायश्यक नियु नि, गा० ४३६
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