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[लोकान्तिक देवों द्वारा प्रार्थना] भ० प्रजितनाथ
१५३ तीर्थंकर पद की पुण्य प्रकृतियों के बन्ध वाले विशिष्ट कोटि के मति, श्रुत और अवधिज्ञान-इन तीन ज्ञान के धारक, अमित शक्ति सम्पन्न महाराज श्री अजित के पुण्य-प्रताप से अन्य राजागरण स्वतः श्रद्धा-भक्ति से नतमस्तक हो उनके अधीन हो गये । परचक्र के भय की तो महाराज अजित के राज्य में कभी किसी प्रकार की आशंका ही नहीं रही। महाराज अजित के शासनकाल में समस्त प्रजा सर्वतः सम्पन्न, समृद्ध, सुखी और न्याय-नीति-धर्मपरायण रही।
धर्म-तीर्थ-प्रवर्तन के लिये लोकान्तिक देवों द्वारा प्रार्थना भोगावली कर्मों के पर्याप्त मात्रा में क्षीण हो चुकने के अनन्तर जब अभिनिष्क्रमण का समय निकट आ रहा था, उस समय एक दिन महाराज अजित ने एकान्त में चिन्तन करते हुए सोचा-"अब मुझे संसार के इन राज्य 'प्रपंचों, भोगोपभोगादि कार्यकलापों का पूर्णतः परित्याग कर अपने मूल लक्ष्य
की सिद्धि के लिए सर्वतः समुद्यत और तत्पर हो जाना चाहिये । निर्वन्ध, निर्विकार, निष्कलंक होने के लिए साधना करने में अब मुझे विलम्ब नहीं करना चाहिये। ___जिस समय महाराज अजित के मन में इस प्रकार का चिन्तन चल रहा था, उसी समय लोकान्तिक देव अपने जीताचार का निर्वहन करने हेतु स्वयंबुद्ध प्रभु के समक्ष उपस्थित हो सविनय सांजलि शीश झुका प्रार्थना करने लगे :
"हे निखिल चराचर जगज्जीवों के शरण्य प्रभो! आप तो स्वयं सम्बद्ध हैं । आप जैसे जगद्गुरु से हम क्या निवेदन करें ? तथापि हम अपने परम्परागत कर्तव्य का पालन करने हेतु आपसे प्रार्थना करते हैं-भगवन ! अब धर्मतीर्थ का प्रवर्तन कर भव्य प्राणियों का उद्धार कीजिये ।" लोकान्तिक देवों ने तीन बार इस प्रकार की प्रार्थना प्रभु से की और प्रभु को वन्दन-नमन कर वे निज देव-धाम की अोर लौट गये।
___ लोकान्तिक देवों के लौट जाने के पश्चात् अजित प्रभु ने युवराज सगर को बला कर कहा- "बन्धो ! मैं अब सभी प्रकार के प्रपंचों का परित्याग कर साधनापथ पर अग्रसर होना चाहता हूं । अतः अब तुम इस राज्यभार को सम्भालो।"
प्रभु के वचन सुन कर युवराज सगर वजाहत से स्तब्ध-अवाक रह गये । उनके फुल्लारविन्द तुल्य सुन्दर एवं आयत दंगों से अश्रुधाराएं प्रवाहित हो चली । विषादातिरेक से अवरुद्ध-अति विनम्र स्वर में उन्होंने प्रभु से निवेदन किया-"देव ! मैं तो शैशवकाल से ही छायावत् सदा आपका अनन्य अनगामी रहा हूं । मैंने तो सदा आपको ही अपना मात-तात-गुरु और सर्वस्व समझा है ।
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