________________
१५२
जैन धर्म का मौलिक इतिहास
[ नामकरण !
श्री के संकल्प की सराहना करते हुए कहा- "मोक्ष की साधना करना प्रत्येक मुमुक्षु के लिये परमावश्यक है। ऐसे पुनीत कार्य में किसी भी विज्ञ को बाधक न बन कर साधक ही बनना चाहिये । राज्यभार ग्राप पितृव्यश्री को ही दीजिये । वे युवराज हैं और राज्यभार ग्रहण करने में समर्थ एवं सुयोग्य भी ।" राजकुमार अजित अपनी बात पूरी कह ही नहीं पाये थे कि युवराज सुमित्र ने कहा - " मैं किसी भी दशा में इस सांसारिक राज्य के झंझट में नहीं फँसू गा । मैं तो महाराज के साथ ही मोक्ष का शाश्वत साम्राज्य प्राप्त करने के लिये प्रव्रज्या ग्रहरण कर साधना करूंगा ।"
• राजकुमार श्री अजित ने अपने ज्ञानोपयोग से सुमित्र विजय के प्रव्रजित होने में अभी पर्याप्त विलम्ब जान कर अनुरोध किया कि यदि आप किसी भी दशा में राज्यभार ग्रहण करना नहीं चाहते तो आपको कुछ समय तक गृहवास में ही भावयति के रूप में रहना चाहिये ।
महाराज जितशत्रु ने भी कहा--"कुमार ठीक कहते हैं । स्वयं तीर्थंकर हैं । तुम इनके तीर्थ में सिद्ध होवोगे । अतः अभी भावयती बनकर घर में ही रहो । सुमित्र विजय उन दोनों के अनुरोध को नहीं टाल सके ।
प्रभु प्रजित का राज्याभिषेक
बड़ी ही साज-सज्जा के साथ भ० अजितनाथ के राज्याभिषेक महोत्सव का आयोजन किया गया । महाराज जितशत्रु ने हर्षोल्लास के वातावरण में दिव्य समारोह के साथ राजकुमार श्री अजित का राज्याभिषेक किया । राज्यसिंहासन पर आरूढ़ होते ही महाराज श्री अजित ने सगर कुमार को युवराज पद पर अधिष्ठित किया ।
पिता को प्रव्रज्या, केवलज्ञान श्रौर मोक्ष
प्रभु के राज्याभिषेक महोत्सव के सम्पन्न हो जाने पर महाराज जितशत्रु का अभिनिष्क्रमरण बड़े उत्सव के साथ हुआ । उन्होंने प्रथम तीर्थंकर भगवान् आदिनाथ द्वारा स्थापित धर्म तीर्थ की परम्परा के एक स्थविर मुनिराज के पास प्रव्रज्या ग्रहण की।
श्रमरणधर्म में दीक्षित होने के पश्चात् मुनि जितशत्रु ने दीर्घ काल तक कठोर तपश्चरण के साथ-साथ विशुद्ध संयम की पालना द्वारा चार घाति-कर्मों को नष्ट कर केवलज्ञान - केवलदर्शन प्राप्त किया और अन्त में शेष ४ अघाति कर्मों को विनष्ट कर अनन्त शाश्वत सुखधाम-मोक्ष प्राप्त किया ।
महाराजा प्रजित का प्रादर्श शासन
राजसिंहासन पर प्रारूढ़ होने के पश्चात् महाराज अजित ने तिरेपन लाख पूर्व तक न्याय - नीतिपूर्वक प्रजा का पालन किया । संसार के सर्वोत्कृष्ट पद
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org