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जैन धर्म का मौलिक इतिहास
[ब्रह्मदत्त चक्रवर्ती
6.00
२.
.. ( इनके वंश में देवमीढ़ नाम से विख्यात एक यादव हो गये हैं) ' ३. देवमीढ़
४.
शूर
५. वसुदेव ६. श्रीकृष्ण
ब्रह्मवत चक्रवर्ती
भगवान् अरिष्टनेमि के निर्वारण के पश्चात् और भगवान् पार्श्वनाथ के जन्म से पूर्व के मध्यकाल में प्रर्थात् भगवान् ग्ररिष्टनेमि के धर्म-शासन में इस अवसर्पिणी काल का भारतवर्ष का अन्तिम चक्रवर्ती सम्राट् ब्रह्मदत्त हुआ । ब्रह्मदत्त का जीवन एक प्रोर भ्रमावस्या की दुखद, बीभत्स प्रन्धेरी रात्रि की तरह भीषरण दुःखों से भरपूर; और दूसरी ओर शरद पूरिंगमा की सुखद सुहावनी चटक चाँदनी से शोभायमान रात्रि की तरह सांसारिक सुखों से श्रोतप्रोत था । इसके साथ ही साथ ब्रह्मदत्त के चक्रवर्ती - जीवन के बाद के एवं पहले के भव दारुरण से दारुरणतम दुःखों के केन्द्र रहे ।
ब्रह्मदत्त के ये भव भीषण भवाटवी के और भवभ्रमरण की भयावहता के वास्तविक चित्र प्रस्तुत करते । उनका संक्षिप्त विवरण इस प्रकार है :
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काम्पिल्य नगर के पांचालपति ब्रह्म की महारानी चुलनी ने गर्भधारण के पश्चात् चक्रवर्ती के शुभजन्मसूचक चौदह महास्वप्न देखे । समय पर महारानी चुलनी ने तपाये हुए सोने के समान कान्ति वाले परम तेजस्वी पुत्ररत्न को जन्म दिया ।
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ब्रह्म नृपति को इस सुन्दर-तेजस्वी पुत्र का मुख देखते ही बह्य में रमरण (प्रात्मरमरण) के समान परम आनन्द की अनुभूति हुई इसलिये बालक का नाम ब्रह्मदत्त रखा गया। माता-पिता और स्वजनों को अपनी बाललीलाओं से श्रानन्दित करता हुआ बालक ब्रह्मदत्त शुक्लपक्ष की द्वितीया के चन्द्र की तरह बढ़ने लगा ।
काशी - नरेश कटक, हस्तिनापुर के राजा करणेरुदत्त, कोशलेश्वर दीर्घ प्रौर चम्पापति पुष्पचूलक ये चार नरेश्वर काम्पिल्याधिपति ब्रह्म के अन्तरंग मित्र थे । इन पाँचों मित्रों में इतना घनिष्ठ प्रेम था कि वे पाँचों राज्यों की राजधानियों में क्रमशः एक-एक वर्ष साथ ही रहा करते थे । निश्चित क्रम के अनुसार वे पांचों मित्र वर्षभर साथ-साथ रहने के लिये काम्पिल्यपुर में एकत्रित हुए । ग्रामोदप्रमोद के साथ पाँचों मित्रों को काम्पिल्यपुर में रहते हुए काफी समय बीत गया ।
१ इससे यह प्रतीत होता है कि सम्भवतः यहां एक, दो या इससे अधिक भी कुछ राजानों का नामोल्लेख नहीं किया गया है । [ सम्पादक ]
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