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भगवान् श्री वासुपूज्य
श्रेयांसनाथ के बाद बारहवें तीर्थंकर वासुपूज्य स्वामी हुए।
पूर्वभव ‘इन्होंने पुष्कराद्ध द्वीप के मंगलावती विजय में पद्मोत्तर राजा के भव में निरन्तर जिनशासन की भक्ति की । इनके मन में सदा यही ध्यान रहता कि लक्ष्मी चपला की तरह चंचल है और पुण्यबल मंजलिगत जल की तरह नश्वर है, अतः इस नाशवान शरीर से अविनश्वर मोक्ष-पद की प्राप्ति करने में ही जीवन का वास्तविक कल्याण है।
___ संयोगवश भावना के अनुरूप उनका वज्रनाभ गुरु के साथ समागम हा । उनके उपदेश से विरक्त होकर इन्होंने संयम ग्रहण किया और उग्र-कठोर तप एवं अर्हद्-भक्ति प्रादि शुभ स्थानों की पाराधना से तीर्थकर-नामकर्म का उपार्जन किया । अन्तिम समय शुभध्यान में काल कर वे प्राणत स्वर्ग में ऋद्धिमान देव हुए।
जन्म
प्राणत स्वर्ग से निकल कर यही पद्मोत्तर का जीव तीर्थंकर रूप से उत्पन्न हुआ । भारत की प्रसिद्ध चम्पानगरी के प्रतापी राजा वसुपूज्य इनके पिता और जयादेवी माता थीं।
ज्येष्ठ शुक्ला नवमी को शतभिषा नक्षेत्र में पयोत्तर का जीव स्वर्ग से निकलकर माता जया की कुक्षि में गर्भ रूप से उत्पन्न हुमा । उसी रात्रि में माता जया ने चौदह महा शुभ-स्वप्न देखे जो महान् पुण्यात्मा के जन्म-सूचक थे। माता ने उचित आहार-विहार से गर्भकाल पूर्ण किया और फाल्गुन कृष्णा चतुर्दशी. के दिन शतभिषा नक्षत्र के शुभ योग में सुखपूर्वक पुत्ररत्न को जन्म दिया।
नामकरण महाराज वसुपूज्य के पुत्र होने के कारण आपका नाम वासुपूज्य रखा गया।
विवाह मोर राज्य __ . प्राचार्य हेमचन्द्र के मतानुसार वासुपूज्य अविवाहित माने गये हैं, ऐसा
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