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________________ २१८ जैन धर्म का मौलिक इतिहास [विवाह और राज्य] ही जिनसेन आदि दिगम्बर परम्परा के आचार्यों का भी मन्तव्य है । हेमचन्द्र के अनुसार शैशवकाल पूर्ण होने पर भी जब वासुपूज्य शिशु की तरह भोग से सर्वथा विमुख दिखाई दिये, तब महाराज वासुपूज्य ने पाणिग्रहण का प्रस्ताव रखते हुए पुत्र से अनुरोध की भाषा में कहा-"कुमार ! अब तुम्हें विवाह करना चाहिये। जैसे ऋषभ ने पितृवचन से सुनन्दा और सुमंगला से पाणिग्रहण किया और अजितनाथ से श्रेयांसनाथ तक के भूतकालीन तीर्थंकरों ने भी पिता के अनुरोध. से राज्य का उपभोग कर फिर मोक्ष-मार्ग का साधन किया। इसी प्रकार तुम्हें भी विवाह, राज्य, दीक्षा और तप:साधन की पूर्व-परम्परा का पालन करना चाहिये । यही हमारी अभिलाषा है ।" ... पितृ-वचन को सुनकर वासुपूज्य ने सादर कहा-"तात ! पूर्व पुरुषों के पावन चरित्र को मैं भी जानता हूं, किन्तु सबके भोग्य-कर्म समान नहीं होते। उनके जैसे-जैसे कर्म और भोगफल अवशेष थे, वैसे मेरे भोग-कर्म अवशिष्ट नहीं हैं । साथ ही भविष्य में भी मल्लिनाथ, नेमनाथ आदि तीर्थंकर भोग्य-कर्म अवशेष नहीं होने से बिना विवाह के ही दीक्षित होंगे, ऐसे मुझे भी अविवाहित रहकर दीक्षा ग्रहण करना है । अतः आप प्राज्ञा दीजिये जिससे मैं दीक्षित होकर स्व-पर का कल्याण कर सकू।" इस प्रकार माता-पिता को समझा कर विवाह और राज्य-ग्रहण किये बिना ही इनके दीक्षा-ग्रहण का उल्लेख मिलता है । प्राचार्य हेमचन्द्र के अनुसार वासुपूज्य बालब्रह्मचारी रहे एवं उन्होंने न विवाह किया और न राज्य ही। किन्तु प्राचार्य शीलांक के "चउपन्न महापुरिस चरियं" में दार-परिग्रह करने और कुछ काल राज्यपालन कर दीक्षित होने का उल्लेख है ।' वास्तव में तीर्थंकर की गृहचर्या भोग्यकर्म के अनुसार ही होती है, अतः उनका विवाहित होना या नहीं होना कोई विशेष अर्थ नहीं रखता । विवाह से तीर्थकर की तीर्थकरता में कोई बाधा नहीं पाती। बीक्षा मोर पारणा भोग्यकर्म क्षीण होने पर प्रभु ने लोकान्तिक देवों से प्रेरित होकर वर्षभर तक निरन्तर दान दिया, फिर अठारह लाख वर्ष पूर्ण होने पर छह सौ राजाओं के साथ चतुर्थ-भक्त से दीक्षार्थ निष्क्रमण किया और फाल्गुन कृष्णा अमावस्या को शतभिषा नक्षत्र में सम्पूर्ण पापों का परित्याग कर श्रमणवृत्ति स्वीकार की। __दूसरे दिन महापुर में जाकर राजा सुनन्द के यहां प्रभु ने परमान से प्रथम पारणा किया । देवों ने पंच-दिव्य बरसा कर पारण की बड़ी महिमा की। १ तो कुमारभावमणुवालिऊण किंचिकालं कयदारपरिग्गहो रायसिरिमणुवालिऊण.. . चउ० महापुरिस च० पृ० १०४ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002071
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year1999
Total Pages954
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, Tirthankar, N000, & N999
File Size16 MB
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